________________ * 176 . .. श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * प्रकारका कर्म ही है। और जैनोंने कर्मवादकी नींव रूप माने स्थूल आठ प्रकारके कर्मों में से यह आठवाँ कर्म है, जिसे 'आयुष्यकर्म' ऐसे नामसे पहचाना जाता है / कर्म हुआ अर्थात् जैनसिद्धांतके अनुसार वे कर्म एक पदार्थरूपसे हैं, जिसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श रहे हैं, लेकिन अत्यन्त सूक्ष्मभावको पाये होनेसे वे चर्मचक्षुसे दृश्य नहीं होते, लेकिन ज्ञानदृष्टिसे ज्ञानी जरूर देख सकते हैं। पदार्थ हुआ अतः वह पुद्गल-परमाणु के समूहरूप है। इस आयुष्यके पुद्गल जिस आत्माने जिस प्रकार के जितने एकत्र किये हों उस तरह उतना समय यह जीव शरीरमें रह सकता है। इन पुद्गल-परमाणुओंका जीव भोगद्वारा क्षय कर दे कि तुरंत ही, उसी क्षण, आत्मा वर्तमान देहमें से निकलकर अन्य जीवायोनिमें प्रवेश कर देता है और वहाँ उत्पन्न होकर तद्भवयोग्य देहकी रचना करता है / . इससे तात्पर्य यह निकला कि-इस आयुष्यके पुद्गल जीव को अमुक काल या वर्षों तक देहमें टिकानेवाले हैं। यह आयुष्य पुद्गलके समूहरूप है। इसके पर ही जीवन या मरणका आधार होता है / ... इस आयुष्यके पुद्गलोंके साथ कालका भी संबंध है अर्थात् इन पुद्गलोंको जिस जन्मान्तरसे जीव बांधकर लाया वह कितने समयमें भोगनेके होते हैं ? इसके लिए कालका नियमन भी होता है। इससे जीवको भवांतरमें जाना हो तब, पुद्गल और काल दोनोंका क्षय करना पडता है; अतः ही शास्त्रीय शब्दमें आयुष्यके दो भेद करके समझाया है / (1) द्रव्यआयुष्य और (2) कालआयुष्य। 1. द्रव्य अर्थात् पुद्गल तथाप्रकारके कर्म पुद्गलोंके द्वारा जिया जाय वह द्रव्यायुप्य / तेलके बिना दीपक जल नहीं सकता वैसे इस आयुष्य कर्मके पुद्गलोंके बिना आत्मा ( देहमें ) जी ही नहीं सकती। ये पुद्गल वही ही द्रव्यायुष्य / इसकी मददसे ही यथायोग्य काल जीवित रहा जाता है। प्रत्येक आत्मा विवक्षित भवमें जो आयुष्य पुद्गलों का उपभोग करता रहता है उसके लिए एक अटल नियम समझ लेना कि भूतकालके-गतजन्मके बंधे कर्म उदयमें आए भोगते हैं। और वर्तमान जन्ममें बंधे हुए आयुष्य पुद्गल उसके भावि जन्ममें भोगनेके होते हैं। इससे समझना कि आज़ वर्तमानमें जो आयुष्य पुद्गल भोगता होता है, वे पुद्गल जन्मांतरके बन्धे जितने हे उतनोंका संपूर्ण क्षय न हो जाए तब तक जीव कभी भी वर्तमान देहमेंसे छूट सकता।