________________ * द्रव्य और काल मायुष्यकी समज .. * 177 . नहीं। प्रत्येक परमाणु भोगा जाना ही चाहिए। तत्पश्चात् ही जीव की मृत्यु होती है और गत्यन्तरमें आत्मा चली जाती है। यह नियम द्रव्यायुष्यके लिए है / 2. अब दूसरा प्रकार कालायुष्यका है / द्रव्यायुष्यके जैसा इस आयुष्यके लिए नियम नहीं हैं। अर्थात् जितना बांधकर लाया हो उस सारे कालका अनुभव या भोग करना ही पडे अर्थात् उतने बरस तक जीना ही चाहिए ऐसा नहीं है, इसमें विकल्प है इसलिए भोगना पडे अथवा न भी पडे / इस कालायुप्यको जरा विस्तारसे समझ लें / द्रव्य आयुष्यकी मददसे जीव-आत्मा (जघन्य अंतर्मुहूर्तसे लेकर उत्कृष्ट सागरोपम तक ) जी सकता है अथवा उस उस देहमें टिक सकता है। इसीका नाम काल आयुष्य / काल अर्थात् समय / फिर उस समयसे लेकर अंतर्मुहूर्त, घडी, प्रहर, दिवस, मास, वर्ष कुछ भी समझना / - इस कालायुष्यकी व्याख्या द्रव्यायुष्यसे भिन्न है। अर्थात् जीव गतजन्ममें द्रव्यायुण्यके बन्धके समय, कालायुष्यका बन्ध भी एकत्र कर देता है। लेकिन जैसे द्रव्यायुष्यका अपवर्तन होता ही नहीं है और इसलिए उसका पूर्ण क्षय ही करना पड़ता है लेकिन कालायुष्यका संपूर्ण क्षय करना ही पडे ऐसा एकांत नियम नहीं है अर्थात् उसमें अपवर्तन मतलब कि हास मी हो जाए। . उदाहरण स्वरूप गत जन्ममें सौ सालके वर्षके आयुष्यकी मर्यादा निश्चित करके फिर यहाँ वर्तमानकालमें मनुष्य रूपमें जन्मे तो वह जीव सौ साल तक जीएगा ही ऐसा निश्चित न कहा जा सके / बिचमें कोई उपद्रव या अकस्मात आवे तो अंतर्मुहूर्तमें ही मृत्यु पा जाए। और आज बहुत उदाहरण देखते हैं जिसे व्यवहारमें अकाल मृत्यु के रूपमें पहचाना जाता है। इससे मथितार्थ यह निकला कि, द्रव्य आयुष्यमें अपवर्तन नहीं है / वह अनपवर्तनीय है जबकि कालायुष्यमें विकल्प होनेसे वह अपवर्तन तथा अनपवर्तन दोनों प्रकारसे भोगा जाता है / शंका-द्रव्यायुष्य पूर्ण भोगा जाए तो तत्सहचारि कालायुष्य न भोगा जाए ऐसा कैसे बने ? यह बात तो विचित्र लगे ! ..... समाधान-आयुष्यकी स्थिति या लयमें प्रधान कारण आयुष्य कर्मके : पुद्गल ही हैं। पुद्गल ऐसी वस्तु है कि धीरे धीरे भोगी जाए और शीघ्र मी भोगी जाए। इसका "आधार आत्माके मन्द-तीव्र अध्यवसाय पर है / बृ. सं. 23