________________ 348 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 168-169 / भोगनेकी इच्छा होती नहीं है, फिर भी वे विषयी देवोंसे अधिक संतुष्ट, अधिक शान्त तथा अधिक आनन्दमें रहते हैं। क्योंकि ज्यों ज्यों कामेच्छा प्रबल त्यों त्यों चित्तकी अस्वस्थता एवं अशांति अधिक। जितनी इच्छा कम उतना चित्त क्लेश भी कम और विषयेच्छाके सदन्तर अभावका आनन्द तो कोई अद्भुत होता है। और इससे वहाँ विषय तृप्तिके साधन भी बहुत कम हैं / अतः नीचेके देवोंसे ऊपरि-ऊपरि देवोंका सुख अधिक माना गया है। यहाँ पर दूसरी शंका यह भी उद्भवेगी कि-जो देव तद्दन अप्रविचारी हैं उन्हें ब्रह्मचारी माने क्या ? तो इसका उत्तर यह है कि नहीं, क्योंकि जहाँ तक किसी एक चीजका हृदयसे-इच्छापूर्वक त्याग न किया हो तब उस चीजका उपयोग होता हो या न होता हो तो भी वे ब्रह्मचारी नहीं हैं और उसका फल भी उन्हें मिलता नहीं है। जब कि देवोंको तो अपने देवभवके कारण ही विरति-त्यागपरिणाम नीकलंता ही नहीं. . है, इससे उन्हें ब्रह्मचारी कहाँसे कहे जाएँ ? ना ही कहे जाएँ। इसलिए हरेक जीवोंको ज्यादा नहीं तो बिनजरूरी पापवृत्तियोंका त्याग-नियम करके अनावश्यक अविरतिजन्य पापोंसे बचनेको प्रयत्नशील रहना चाहिए। [168 ] // किस किस देवका, किस तरह देवियोंके साथ उपभोग है ? उसका यन्त्र // निकाय नाम | भोग विषय | कल्पनाम भोगविषय प्रकार | भवनपति मनुष्यवत् | शुक्र-सहस्रारके | गीतादिक. व्यन्तर | कायभोगी शब्दसेवी ज्योतिषी देव आनत-प्राणतके | मनसे देवी विषयसेवी सौधर्म-ईशानके | , आरण अच्युतके , . सनत्कुमार | स्तनादिक- नौ ग्रेवेयकके | अविषयी, ____ माहेन्द्रके | स्पर्शसेवी | अनन्तसुखी ब्रह्म-लांतकके | शृङ्गाररूप सेवी | पाँच अनुत्तरके अवतरण-समग्र लोकके तथा गतगाथामें कथित देवोंके विषयसुख और वीतरागी आत्माओंके सुखके बीचका तारतम्य (सम्बन्ध ) अब जणाते हैं। जं च कामसुहं लोए, जं च दिव्वं महासुहं / वीयरायसुहस्सेअ-गंतभागपि नग्बई / / 169 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 169 // विशेषार्थ-समग्र लोकके जो काम-सुख हैं, और जो दिव्य ( देवलोकादि सम्बन्धी )