________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] मंगलका विचारणा [7 जे मंगलमादीए मज्झे पज्जतए य सत्त्थस्स / पढमं सत्थत्था विग्धंपारगमणाय निद्दिछ / "वह मंगल, सूत्रके आदिमें, मध्यमें और ग्रंथके अंतमें भी करना चाहिए / सूत्रार्थकी रचना निर्विघ्नतासे पूर्ण हो यह कारण प्रथम मगलका है "" .. 3. नमस्कारका प्रयोजन इस नमस्कार करनेरूप शिष्टाचारके पालनके बिना किया गया कार्य इष्टसिद्धि नहीं दे सकता, अतः अरिहंतादि, पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करनेरूप मंगलाचरण सर्वत्र करनेका शास्त्रोंमें बारबार बताया है, इससे यह तो सिद्ध होता ही है कि किसी भी ग्रंथके प्रारंभसे लेकर परिसमाप्ति पर्यन्त आते विनोंको दूर करने अर्थात् ग्रंथकी निर्विघ्न समाप्ति रूप फलकी सिद्धि के लिए नमस्काररूप मंगल ऋषि-महर्षि-यावत् परमर्षि सभीको यथासंभव अवश्य करना पड़ता है, क्योंकि कल्याणकारी कार्योंमें विघ्न होते रहते हैं / कहा है कि 'श्रेयांसि बहुविध्नानि, भवन्ति महतामपि' / कल्याणकारी कार्योंमें महात्मा पुरुषोंको भी विघ्न आते हैं / साथ ही नमस्कारात्मक मंगल यह विघ्नोपशामक होनेके साथ शास्त्रमें श्रद्धा-आदर: कर्मनिर्जराकी उत्पत्ति और परंपरासे यावत् मोक्षप्राप्ति आदिमें कारणभूत है / इस तरह ग्रन्थकी रचना करना यह भी एक उत्तमोत्तम कल्याणकारी मंगल कार्य होनेसे श्रीमान् ग्रन्थकार महर्षिने प्रारम्भमें ही 'अरिहंताई' इस पदसे अरिहंतादि पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करनेरूप मंगलका आचरण किया है, ऐसा इस ग्रंथकार महर्षि द्वारा किया गया भावनमस्काररूप ‘भावमंगल' करनेका कारण बताया / * शंका :-आपने ऊपरकी सारी बातें कहकर तात्पर्य यह दिखाया कि विघ्नोंकी शान्तिके लिए ग्रंथके प्रारम्भमें अवश्य मंगल करना चाहिए, इस विधानका तो हमने स्वीकार किया, परन्तु अर्हत् , सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओंको उद्देश्य करना चाहिए उसका क्या कारण ! और उनको नमस्कार करनेसे कौनसे फलकी प्राप्ति होती है ? 4. नमस्कार मंत्र क्यों मंगलरूप है ? समाधान :-अर्हत् , सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु, ये पंचपरमेष्ठी३. कोई शंका करता है कि आप मंगल करते हैं तो रचना किये हुए वे ग्रन्थ क्या अमंगलरूप है ? तों-नहीं / ग्रन्थ स्वयं मंगलरूप है /