________________ 6 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ मंगलका प्रयोजन हो गये अनंतज्ञानी और अनागतकालमें होनेवाले अनंत जिनेश्वरदेव, वे सब उक्त शिष्टाचारका पालन अवश्य करनेवाले हैं, तो फिर छद्मस्थ महर्षि आत्माएँ उसी जिनेश्वरके मुखारविंदसे प्रकट हुई सूत्रात्मक उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप त्रिपदी और उस पर रचित सारी द्वादशांगके आधार पर भव्यात्माओंके कल्याणके हेतु शास्त्ररचना करें, और ऐसे शुभ कार्यमें इष्टदेवादिको नमस्कार कर नेरूप मंगल करें, इसमें सोचनेका अवकाश भी क्या है एवं हम देख सकेंगे कि प्रायः सकलसाधुशिरोमणि शिष्टपुरुषोंने सिद्धांतादि उन उन ग्रन्थोंके प्रारंभमें जगह-जगह पर मंगलाचरणरूप शिष्टाचारका जो पालन किया .. है वह इसीलिए है कि “शिष्टाचारका पालन यह शिष्टता प्राप्त करनेका हेतु है" ! कहा है कि 'शिष्टानां शिष्टत्वमायाति शिष्टमार्गानुपालनात्' और इसीलिए ही उनकी / शिष्टता भी चमक उठती है / 'महाजनो येन गतः स पन्थाः ' इस कथनके अनुसार महापुरुष जिस मार्गपर चलें वही मार्ग सही है यह समझकर उत्तमपुरुष शिष्टपुरुषोंके मार्गका आचरणं अवश्यमेव करते हैं। इस नियमानुसार इस ग्रंथकर्ताने भी उसका अनुकरण किया है, क्योंकि पुण्यात्माए इष्टदेवादिको किये गये नमस्काररूप नौकासे संसारसागरको ( साथ ही साथ किसी भी कार्यको ) आसानीसे पार कर सकती हैं। अरे ! हम निरतर आवश्यक क्रिया करते समय भक्तिभावपूर्वक उच्चार करते हैं कि इक्को वि नमुक्कारो, जिणवरवसहस्सबद्धमाणस्स / संसारसागराओ तारेई नरं वा नारिं वा / / भावार्थ-जिनेश्वरोंमें वृषभ समान ऐसे वर्धमानस्वामीको किया गया एक ही नमस्कार अगर नर या नारीको, संसार समुद्रसे पार करता है, तो फिर ग्रन्थकारने सकल अरिहंतादि देवोंको किया नमस्कार क्या फल न दें ! इसीलिए ही नमस्कार करनेवाली आत्मा विघ्नोंकी परम्पराको पार करें यह तो सहज है, क्योंकि अरिहंतदेवको नमस्कार करनेरुप भावमंगल तो इष्टकार्यकी सिद्धि देनेवाला है, यह कथन सर्वमान्य और सुप्रसिद्ध है, और इसीलिए ही वह मंगल ग्रंथके आदिमें अवश्य किया जाता है / कहा है कि 'मङ्गलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये / ' इसका अर्थ सरल है। इसी बातकी पुष्टि करते हुए भगवान जिनभद्रगणीक्षमाश्रमणमहाराज भी . लिखते हैं कि एकबार नहीं तीनबार मंगल करना जरूरी है।