________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] मंगलका प्रयोजन [5 उस बृहत्संग्रहणी ग्रन्थका कद कुछ बड़ा अर्थात् 353 गाथाओंसे अधिक होने के कारण, इस विषयकी और भी संक्षिप्त रचना हो तो बालीवोंको विशेष लाभदायी हो' इस अभिप्रायसे जीवोंके आयुष्य, अवगाहना आदि विषयों पर 273 गाथाओंसे, बारहवीं शताब्दिमें जन्मे हुए, मलधारगच्छोय आराध्यपाद श्रीमान् चंद्रसूरीश्वरजी महाराजने इस संग्रहणीरत्न अथवा अपर-प्रसिद्धनाम 'श्री बृहत्सग्रहणी' नामके ग्रन्थकी रचना की हो ऐसा स्पष्ट समझमें आता है / यद्यपि श्री दडकप्रकरण [लघु संग्रहणी ] आदि ग्रन्थोंकी तरह, इस ग्रन्थमें चौबीस दडकोंके नाम लेनेपूर्वक परिभाषा नहीं की है, परंतु देवादिक चार गति आश्रितकर आयुष्य, शरीर परिमाण इत्यादि प्रथम गाथामें निर्दिष्ट किये द्वारोंका, बहुत सरल और सुन्दर, व्यवस्थित और आकर्षक पद्धतिसे वर्णन किया है। 2. शिष्टाचार पालन __ मंगल करनेका प्रयोजन आदि / . इस 'संग्रहणी' अपरनाम बृहत्संग्रहणी अथवा त्रैलोक्य दीपिका-नामक प्रकरण ग्रन्थके कर्ता वारहवीं शताब्दिमें हुए परमकारुणिक श्रीमान् मलधारगच्छीय श्रीमान् चन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने सकलशास्त्रके निस्यन्द वा नवनीतरूप इस ग्रन्थकी रचना करते प्रारंभमें ही 'नमिउं अरिहंत' इस पदसे अरिहंतको और 'आई' शब्दसे सिद्ध आचार्थादि परम पुरुषोंको नमस्कार किया है। नमस्कार करनेका प्रयोजन क्या ? इस प्रश्नके समाधानमें यह समझनेका है कि आप्तपुरुष किसी भी ग्रंथके प्रारभमें भावमगल अवश्य करते हैं, और वह भावमंगल मुख्यतः इष्टदेवको नमस्कार रुप होता है। यह भारतीय प्राचीन परंपरानुसार पूर्वसे चला आया जो शिष्टाचार है उसका पालन भी होता है। - सर्वज्ञ, श्रीतीर्थकर परमात्मा जैसे पुरुष भी अमृतझरनी, वैराग्यवाहिनी, भव्यात्माओंको संसार सागरसे उत्तीर्ण करनेवाली, सर्वविरति-प्रधान देशनारुप अमोघ मेघधारा बरसाते प्रारंभमें ही 'नमोतित्थस्स'का पदोच्चारण करते हैं। ___ किसी भी प्रकारके विघ्नोंका जिसको संभव होता ही नहीं हैं, इतना ही नहीं लेकिन जो त्रिकालज्ञानी होने के साथ वे सर्वदर्शी पुरुष शुभाशुभ सर्वभावोंको देखते रहते हैं, ऐसे तद्भव मोक्षगामी परमात्मा भी उक्त नमस्कार करनेरुप भावमगल विधिका आचरण करते हैं, इसमें कारण कुछ भी हो-कोई हो तो वह शिष्टाचारके पालनके सिवा अन्य कुछ नहीं है। यह शिष्टाचार पालन अनादिसिद्ध है क्योंकि अतीत कालमें