________________ 370 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१८७-१८८ [ अन्यथा सामान्य आहार तो जीव मात्रको समय समय पर मिलता ही रहता है ] पंचेन्द्रिय तिर्यंचको आहारेच्छा स्वाभाविक 335 रूपसे उत्कृष्ट छठ पर अर्थात् दो अहोरात्रि (48 घण्टे )के अन्तर पर होती है, तथा पंचेन्द्रिय मनुष्यको तीन अहोरात्रि ( 72 घण्टे )के अन्तर पर आहारेच्छा होती है। परन्तु यह उत्कृष्ट आहार अन्तर यह सुषमसुषम कालमें भरत, ऐरवत, देवकुरु, उत्तरकुरु क्षेत्रवर्ती तीन पल्योपमायुषी मनुष्य-तिर्यचोंका जानें, लेकिन दूसरोंका नहीं। साथ ही छट्ठ, अट्ठम पर जो आहार ग्रहण कहा गया है, इसे स्वाभाविकरूपमें अर्थात् जब तप-रोगादिका अभाव हो तब ही समझना। लेकिन तपरोगादिक संभव हो तो अनेक दिनों तक आहार ग्रहण संभवित बनता ही नहीं है। वर्तमानके सामान्य तिर्यंच मनुष्योंको अंतर्मुहूर्त पर अथवा अनियतरूप भी. आहारकी इच्छा होती है, परन्तु तप रोगादि न हो तब, क्योंकि तपादि कारणसे तो छः छः मास' तक भी आहार ग्रहण होता नहीं है। पृथ्वीकायादिक एकेन्द्रिय लगातार आहाराभिलाषी होनेसे इनका कोई अन्तरमान होता ही नहीं है, अतः ग्रन्थकारने इस गाथामें बताया नहीं है। [ 187 / अवतरण-अब अनाहारक जीव कौन-कौनसे हैं तथा कौन-कौनसे जीवोंको कब-कब अनाहारकपन होता है ? उसे अब बताते हैं। विग्गहगइमावना, केवलिणो समूहया अजोगी य / , सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा // 188 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 188 / / विशेषार्थ-आहारक तथा अनाहारककी व्यवस्थाके लिए गाथामें 'विग्गहगई' शब्दका प्रयोग किया गया है अतः विग्रहगति किसे कहे ? और वह कब हो सकती है ? उसे अगर हम समझ लें तो ही प्रस्तुत बात स्पष्ट समझ सके इसलिए उसका कुछ स्वरूप यहाँ समझ लें / जब कि इसी ग्रन्थकी गाथा 329-31 में इसका विशेष रूपमें वर्णन करना उचित है, फिर भी प्रसंगोपात हम यहाँ पर उसकी कुछ स्पष्टता करते हैं। विवक्षित भवका आयुष्य पूर्ण करके दूसरे किसी भवमें ( अथवा मोक्ष पर ) पहुँचने के लिए अथवा एक शरीरको छोड़कर भवान्तरमें दूसरा शरीर ग्रहण करनेके लिए जीव दो प्रकारसे प्रस्थानगति करता है। ___ 336. संग्रहणी टीकाकारने यहाँ पर 'स्वाभाविक 'का अर्थ 'तप रोगादिकका कारण न हो तब' ऐसा बताया है। परन्तु युगलिक मनुष्य-तिथंचको तो तप या रोगका कारण होता ही नहीं है, तो उनका यह लेखन किस प्रबल कारणरूप होगा ? वह ज्ञानीगम्य /