________________ 102 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 40-41 / ये प्रतर चारों ओरसे लोकान्तको स्पर्शकर रहे हैं। ये प्रतर चौदह राजलोकवर्ती सर्व प्रतरों में लम्बाई-चौडाइमें क्षुल्लक अर्थात् छोटे होनेसे क्षुल्लक प्रतरोंके रूपमें परिचित हैं। इसीलिये रुचकप्रस्तार ही प्रतरप्रस्तार है ऐसा भी कहा जाता है। ये दोनों प्रतर आमनेसामने (ऊपर-नीचे) स्थिर हैं। उनमें अधःस्थानसे ऊपर आते हुए जो क्षुल्लक प्रतर आये, उसके ऊपरके भागमें चार रुचक प्रदेश हैं और उसके सम्मुख (ऊर्ध्व )के दूसरे क्षुल्लक प्रतरमें (नीचेके भागसे सम्बद्ध) चार रुचकप्रदेश हैं। ये रुचक आमने-सामने . देखते हुए मानो परस्पर स्पर्धा करते हुए न हों ऐसे दिखते हैं। इस स्थान धर्मापृथ्वीमें . गये हुए मेरुके कन्दके मध्यमें समझना / बहुमजदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुड्डुगपयरेसु एत्थणं तिरियलोगस्स मज्झे अठ्ठपए सिए रुयए पण्णत्ते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ हवंति [श्री भगवतीसूत्र] . 3. " केवइयाणं भंते ! जोइसिया वासा पन्नता ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तणउई सए उड्डे उप्पइत्ता"...इत्यादि [ श्री समवायांगसूत्र ] 4." कहिणं भंते ! जोइसिया देवा परिवसंति ? इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तणउई जोयणसए उड्ड उप्पइत्ता"...[ श्री पन्नवणासूत्र ] 5. 'अस्या रत्नप्रभापृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्ध्व सप्तयोजनशतानि उत्प्लत्य गत्वा अत्रान्तरे अधस्तनं ताराविमानं चारं चरतीत्यादि / ' [ श्री सूर्यप्रज्ञप्ति ] 6. तत्र तिर्यग्लोकस्योर्ध्वाधोऽपेक्षयाऽष्टादशयोजनशतप्रमाणस्य मध्यभागे द्वौ लघुक्षुल्लकप्रतरौ, तयोर्मध्यभागे जम्बुद्वीपे रत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभागे मेरुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकः तत्र गोस्तनाकाराश्चत्वारउपरितनाः प्रदेशाश्वत्वाराधस्तनाः एष एव रुचकः सर्वासां दिशां विदिशां वा प्रवर्तकः, एतदेव च. सकलतिर्यग्लोकमध्यम् [श्री नन्दीसूत्र-टीका ] 7. इसी तरह 'श्री नन्दीचूणि 'में भी कथन है / 8. " स्थानाङ्गजी"के दूसरे भागमें भी इसी तरह समर्थन है / 9. विशेषावश्यकभाष्य पर बनी 'शिष्यहिता'. टीकामें श्रीमान् मलधारि श्री हेमचन्द्रसूरिजीने भी ऊपर बताये अनुसार ही उल्लेख किया है / [ जिसके लिए देखिए गाथा 2700 उपरकी टीका ] " रत्नप्रभाया उपरि क्षुल्लकप्रतरद्र्यौ / मेर्वन्तः कन्दोर्श्वभागे रुचकोष्टप्रदेशकः // 1 // तस्मिंश्च लोकपुरुषकटीतटपटीयसि / मध्यभागे समभूमिज्ञापको रुचकोऽस्ति यः // 2 // [ श्री लोकप्रकाश क्षे० लोक स० 12]