________________ रुचकस्थान और समभूतलस्थान ] गाथा 40-41 [ 103 इन अष्टरुचक प्रदेशोंकों ज्ञानी पुरुष चोरसरुचक' 24 इस नामसे संबोधित करते हैं / ये प्रदेश गोस्तनाकारमें हैं। इस स्थानको रुचकस्थान कहो या समभूतल कहो, यह एक ही है। ___ एक बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि, किसी भी ग्रन्थमें किसी भी वस्तुके निर्देशमें ‘समभृभागात् ' शब्द मात्र कहा हो, तो उसमें रुचकस्थान अन्तर्गत होता है और जहाँ 'रुचकात् ' केवल इतना ही कहा हो तो इससे समभूतला स्थान भी कहा जा सकता है, क्योंकि समभूतल और रुचक ये एक ही स्थानवाची शब्द हैं / ___ इस तरह सारे १२५सिद्धान्त “धर्मापृथ्वीमें (रत्नप्रभाग ) ही क्षुल्लक प्रतर और अष्टरुचक प्रदेश मानना" ऐसा सूचन करते हैं और साथ-साथ वही समभूतल स्थान है, वही दिशा और विदिशाका प्रभवस्थान है तथा वही तिर्यग्लोकका मध्य है। अर्थात् रुचकस्थान, समभूतलस्थान और दिशाभवस्थान इन तीनोंका स्थान एक ही है ऐसा स्पष्टरूपसे कहते हैं। यह समभूतल-रुचकस्थान उसी तिर्छालोकका मध्य है। इतना ही नहीं लेकिन मेरुपर्वतके वनखण्डादिकी ऊँचाई आदि तथा ‘अधोग्राम की शुरूआत भी इस रुचकसे ही प्रारंभ हुई है और वहाँसे ही एक हजार योजन गहराई लेनेको है। ‘मंडलप्रकरण में स्पष्ट बताया है कि-" समभूतलापेक्षया योजनसहरूमधोग्रामाः "-और श्री लघुक्षेत्रसमास मूल में भी इसी बातका समर्थन किया गया है। जोयणसयदसगंते, समधरणीओ अहो. अहोगामा / बायालीससहस्सेहिं, गंतु, मेरुस्स पच्छिमओ // [अर्थ सुगम है ] 11. ' मेरुमध्यस्थिताष्टप्रदेशात्मकरुचकसमानाद्भूतलादष्टाभ्यो दशोनयोजनशतेभ्य आरभ्योपरि दशोत्तरयोजनशते ज्योतिष्कास्तिष्ठन्तीति / ' [ मण्डलप्रकरण ] ऐसे ही उल्लेख श्री जीवाभिगम, जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, तत्त्वार्थसूत्र, भाष्य-टीका, संग्रहणी-टीका, क्षेत्रसमास-टीका, लोकनालिका, ज्योतिष्करण्डक, देवेन्द्रस्तव, आवश्यककी टीकाएँ आदि अनेक ग्रन्थोंमें बताये हैं। 124. यदाहुः-' रुचकेऽत्र प्रदेशानां यच्चतुष्कद्वयं स्थितम् / तत्समश्रेणिकं तच्च विज्ञेयं प्रतरद्वयम् // ' 125. तत्त्वार्थसूत्र अ० 3, सू० 6 की सिद्धसेनीय टीकामें 'समतलाद् भूभागाद्...' इस पंक्तिमें रत्नप्रभावर्ती क्षुल्लक प्रतरोंकी बात की है। लेकिन लगता है कि वह 'उपरितन अधस्तन' नामसे सूचित प्रतरोंकी बात है; नहि कि सबसे लघुक्षुल्लक प्रतरोंकी बात /