________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . सव्वोऽवि किसलओ खलु, उग्गममाणो अणंतओ भणिओ। सो चेव विवडढतो, होइ परित्तो अणंतो वा // 303 // गाथार्थ-सर्व किसलय भी [प्रारंभकी उद्गम अवस्था-कोमल पोके समय ] अर्थात् प्रथम उद्गम अवस्थावाली वनस्पतियाँ उगते समय निश्चित अनंतकाय होती हैं, ऐसा श्री तीर्थंकर तथा गणधरभगवंतोंने बताया है तथा पश्चात् वृद्धि पाते वे ही वनस्पति किसलय, प्रत्येक होनेवाले हों तो प्रत्येक होते और साधारण वा अनंतकाय [बादर निगोदस्वरूप] होनेवाले हों तो अनंतकाय होते हैं / // 303 // विशेषार्थ-यहाँ भावार्थ ऐसा समझना कि-कोई बीज भूमिमें बोया हो तो, मृत्तिका और जलके संयोगसे उसी बीजका जीव मृत्यु पाकर उसीमें पुनः उत्पन्न होकर अथवा उसी बीजका जीव मरकर अन्य स्थानमें जाए तो दूसरा कोई पृथ्वीकायादिकमेंसे मरा हुआ जीव इस बीजमें उत्पन्न होकर प्रथम उस बीजकी विकस्वर अवस्था करे तथा विकस्वर अवस्था करके स्वयं मूलरूपमें परिणत हो और प्रथम विकस्वर अवस्था होनेके बाद उसमें तुरंत ही अनंत जीव उत्पन्न होकर किसलय अवस्था रचते हैं / ये उत्पन्न हुए अनंत जीव मरनेके बाद, उस मूल स्थानमें उत्पन्न हुआ जीव उस किसलयमें व्याप्त हो जाता है / प्रत्येक वनस्पतिके इन किसलयोंका अनंतकायत्व (अवस्था) अन्तर्मुहुर्त टिकता है। तत्पश्चात् वे किसलय प्रत्येक (एक एक शरीरमें एक एक जीववाला) होते हैं, क्योंकि निगोदकी उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्तकी ही है। जबकि प्रत्येक हों तब अन्य अनंत जीव मर जाते हैं। ___ हजारों वनस्पतियोंके जीवोंके अनेक गहन रहस्य, उनकी अकल समस्याएँ तथा अद्भुत विचित्रताओंसे भरे हैं / उनके अभ्यासके लिए अनेक जिंदगियाँ देनी पडे वैसा है। मानवकी बुद्धिमें समझमें न आवे वैसे रहस्य उनमें देखनेको मिलते हैं, लेकिन मानव स्थूल बुद्धिवाला प्राणी है, उससे सूक्ष्म रहस्योंके भेदो थोडे ही सुलझनेवाले हैं ! वहाँ श्रद्धावादका ही समादर करना पडेगा / [303] __ अवतरण- अब यह एकेन्द्रियत्व जीव किस [कर्मके] कारणसे प्राप्त करता है ? यह कहते हैं। 446. पृथ्वीकायादिकको साधारण या अनंतकायत्व नहीं है। इसका कारण उसमें अनंत जीवात्मकत्व नहीं है वह है / परंतु उन्हें प्रत्येक नामकर्मका उदय होनेसे प्रत्येक वनस्पतिकी तरह हरेकके आगे 'प्रत्येक' शब्द लगानेमें हरकत नहीं है /