________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . . 7. अवगाहनाकृत भेद- अवगाहनाका अर्थ होता है किसी भी चीजको लेकर नापनेकी बाबत अथवा दूसरे शब्दोंमें देखें तो किसी भी वस्तुको लेकर नापनेकी प्रक्रियाको अवगाहना कहते हैं। यहाँ तो सिर्फ पाँच शरीर अपने लिए कितना अवकाशक्षेत्र रोकता है, इतना ही काफी (पर्याप्त) समझना है। व्याख्या एवं परिभाषाकी सरलताके लिए आहारक शरीरसे ही शुरु करते हैं। आहारक शरीर सब (पांचों शरीरकी अपेक्षा) से अल्प अवकाश प्रदेशोंको अवगाहता ( रोकता ) है / क्योंकि उसका मान एक ही: हाथका होता है, क्योंकि उसका यह निश्चितमान हैं। इसी कारणसे संख्यातगुण अवकाश प्रदेशमें औदारिक शरीर अवगाह कर रहता है। क्योंकि औदारिक शरीर छेवटपर एक हजार योजन प्रमाणयुक्त है। इससे भी संख्यातगुना क्षेत्रावगाह वैक्रिय शरीरका होता है, जो एक लाख योजन तक फैल सकता है / इस वैक्रियावगाहसे भी असंख्यगुने अवकाश. प्रदेशावगाही तेजस कार्मण ये दोनों शरीर हैं। केवली-समुद्घातके समय उतना अवकाशक्षेत्र, परिबद्ध (संलग्न, घेरा हुआ) होनेसे तैजस कार्मणकी अवगाहना मरण समुद्घातादिके प्रसंग पर गति-आगतिके नियमानुसार विभिन्न मानकी भी हो सकती है। इसे ग्रन्थान्तरसे भी जान सकते हैं। 8. स्थितिकृत भेद-औदारिक शरीरका स्थिति ( टिकाव ) काल जघन्यसे लेकर अंतर्मुहुर्त तक और उत्कृष्टसे लेकर तीन पत्योपम ( युगलिक मनुष्य-तिर्यचोंकी अपेक्षासे), देवों तथा नारकोंको लेकर जन्मसिद्ध भवप्रत्ययिक वैक्रियका काल 33 सागरोपम है / उत्तर वैक्रिय अथवा कृत्रिम वैक्रियका स्थितिकाल लगभग कह चुके हैं फिर भी पुनः याद करें तो देवोंके उत्तर वैक्रियके पंद्रह दिन, नारकोंका अंतर्मुहूर्त, मनुष्य तिर्यच तथा लब्धि प्रत्ययिक वैक्रियका अंतर्मुहूर्त होता हैं। आहारकका (उ.) स्थितिकाल अंतर्मुहूर्त तथा तैजस कार्मणका जघन्योत्कृष्ट स्थितिकाल भव्याश्रयी अनादिसांत और अभव्याश्रयी अनादिअनंत है। अंतिम दो के सिवा शेष तीनों शरीरोंका जघन्य स्थितिकाल अंतमुहूर्त होता है / ... 9. अल्पबहुत्वकृत भेद- इन्हीं पाँचोंमें आहारक शरीर सबसे अल्प संख्यामें है। क्योंकि उसका सृजन कभी - कमी ही होता है / जघन्यसे तो वह एक या दो होते हैं और उत्कृष्टसे कोई काल पर नौ हजार भी हो सकते हैं। इससे भी असंख्यगुने वैक्रिय शरीर होते हैं, क्योंकि उसके स्वामी देव-नारक असंख्य होते हैं इसलिए। और