________________ * प्रथम शरीर द्वार . .281. इससे मी असंख्येने औदारिक शरीर हैं। यद्यपि साधारण वनस्पतिके जीव अनंत हैं। अनंत होनेके कारण औदारिक शरीर अनंता क्यों नहीं है ! इस प्रश्नका समाधान यह है कि अनंत जीवोंका शरीर पुनः एक होता है / इस अपेक्षासे साधारण वनस्पति के जीव अनंत होने पर भी उसके शरीर तो असंख्याता ही होते हैं / इस प्रकार तिर्यचोंको मी अनंता मानते हैं फिर भी हरेकके शरीरका हिसाब लगाये तो उपर्युक्त मतानुसार असंख्यातका ही होता है / शास्त्रोंने भी इस प्रकार की विवक्षा की है। इससे मी तैजसकार्मण शरीर अनंतगुने हैं। क्योंकि वे हरेक संसारी जीवोंमें अलग-अलग अवश्य होते ही है जो परस्पर संख्यासे समान है। 10. अन्तर (विरहकाल) कृत भेद-किसी एक जीवको लेकर औदारिक शरीरका विरहकाल सोचें, तो जघन्यसे लेकर एक समयका और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त्ताधिक 33 सौंगरोपमका होता है / इस प्रकार वैक्रियका जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिका कॉयस्थितिमान अनुसार समझें / आहारक शरीरका जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अर्धपुद्गलपरावर्त और तैजस कार्मणके लिए तो अन्तर ही नहीं है। इस प्रकार यह एक जीवाश्रयी घटना कह सुनायी / अनेक जीवोंकी अपेक्षासे सोचे तो चारों शरीरमेंसे किसीको भी विरहकाल होता ही नहीं है / इस प्रकार शरीरद्वार पूर्ण हुआ / . . 2. अवगाहना-जघन्योत्कृष्ट द्रष्टिसे कौनसे जीवमें कौनसे शरीरकी ऊँचाई ' आदि मान (प्रमाण) कितना होता है ? इसे बताना अवगाहना है / और यह अवगाहना मान तो इसी ग्रन्थमें ही अनेक जगह पर बताया गया है / इस लिए उसके पुनरावर्तनकी ' अब जरूरत नहीं है। 3. संघयण-इसका संस्कृत पर्याय है संहननम् / इसके दो अर्थ हैं। इसमें 581. असंख्यातके भी असंख्य प्रकार हैं / 582. वर्तमान औदारिक शरीरका आयुष्य पूर्ण होनेके बाद ऋजुगतिसे तिर्यच अथवा मनुष्यगतिमें जनमनेवाला उत्पत्तिके प्रथम समय पर औदारिक शरीरयोग्य आहारके पुद्गल ग्रहण करता है / इसी. अपेक्षासे उसे एक समझें, लेकिन शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेकी अपेक्षासे सोचने पर तो अंतर्मुहूर्त समझना चाहिए / 583. कोई चारित्रवान् जीव भवान्तमें वैक्रिय शरीर रचकर तथा अन्तर्मुहूर्त तक जाकर आयुष्य क्षय होते ही ऋजुगतिसे अनुत्तरमें उत्पन्न होता है, उस आश्रयी (संबंधमें) सोच लें / 584. आवलिकाके असंख्यातवें भाग जितने पुद्गलपरावर्त वो, पुनः पुनः वहाँ ही उत्पन्न होते हैं इसी द्रष्टिसे / 585. पुनः चारित्रप्राप्तिके लिए उतना काल ही होनेसे / बृ. सं. 36