________________ * 322 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . उड़नेके लिए सिर्फ उनका जन्म ही जिस प्रकार निमित्त स्वरूप हैं, उसी प्रकार देवलोक तथा नरक एक ऐसा योनि जन्म स्थल है कि वहाँ जो लोग पैदा होते हैं उनमें पैदा होनेके साथ ही अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो ही जाता है। फिर उसमें कुछ भी हानि पैदा न होनेसे यह मृत्युपर्यंत वैसा का वैसा ही टिका रहता है। देवलोकके इसी अवधि' में हानि, वृद्धि या क्षयका पूर्ण अभाव होनेसे इसके कोई भी प्रकार नहीं है। ___ अवधिज्ञानका संबंध देवगतिके साथ और इसमें भी वैमानिकके साथ तो विस्तृत तथा महत्त्वरूप होनेके कारण ही ऊपर दूसरे क्रमकी व्युत्पत्ति उससे आश्रित दिखानी पड़ी है / वरना अवधिका संबंध तो चारों गतिमें हैं। ___ गुणप्रत्ययिक अवधिके असंख्य प्रकारोंको छः प्रकारोंमें ही विभक्तकर दिए गये हैं। 1-2 अनुगामी-अननुगामी, 3-4 वर्धमान-हीयमान, 5-6 प्रतिपाति-अप्रतिपाति। 1. अनुगामी-अर्थात् पीछे-पीछे अनुसरनेवाला अथवा व्यक्तिके साथ साथ ही रहनेवाला। जिसमें जितने क्षेत्रका ज्ञान उत्पन्न हुआ हो, तो वह व्यक्ति जहाँ भी जाती है, ज्ञान उसके साथ साथ ही जायेगा। जिस प्रकार मनुष्यके साथ मनुष्यकी आँखें अथवा हाथमें पकड़ा हुआ लालटेन भी साथ ही आता है और जहाँ कहीं भी जाता है वहाँ वहाँ प्रकाश भी करता है उसी प्रकार / 2. अननुगामी-जो जीवकी साथ साथ नहीं जाता है वह। जिस प्रकार स्तंभ परका कोई दीप, जिस क्षेत्रमें होता है उसी क्षेत्रको ही प्रकाशित करता है, अन्य क्षेत्रको नहीं, उसी प्रकार कोई व्यक्ति जिस क्षेत्रमें उत्पन्न हुई हो उसी क्षेत्रगत पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त कर सकती है, लेकिन दूसरी जगह जाने पर वह ज्ञान साथ साथ नहीं जाता, जिसके कारण वह वहाँ पदार्थका बोधज्ञान नहीं प्राप्त कर सकती। 3. वर्धमान-अर्थात् शुरूमें अंगुलासंख्येय भाग अर्थात् जो अत्यंत सूक्ष्म प्रमाणसे प्रारंभ होता है और कार्यफल ( परिणाम ) की विशुद्धि अथवा पवित्रता बढ़ने पर शुक्ल पक्षकी चंद्रकलाकी तरह उत्तरोत्तर वृद्धि करते एकदम अलोकाकाश तक भी पहुँच जाता है वह / 630. अधो विस्तारीभावेन धावतीत्यवधिः / 631. नन्दीसूत्र और तत्त्वार्थभाष्यमें 5-6 प्रकारोंको अनवस्थित, अवस्थित ऐसा नामांतर दर्शाते कुछ अर्थान्तर. भी बताया गया है /