________________ * शानद्वार-अवधिशान * * 321 . 3. अवधि-यह शब्द मर्यादाके अर्थमें भी प्रयुक्त किया जाता है / विश्वमें प्रवर्तमान रूपी-अरूपी द्रव्योंमेंसे सिर्फ रूपी द्रव्योंको ही बतानेकी मर्यादायुक्त होनेसे उसे 'अवधि' शब्दसे पहचाना गया है। ____ यह ज्ञान अवधिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे ही होता है / इस ज्ञानका शाश्वत और दीर्घकालीन अस्तित्व देवलोक तथा नरकमें हैं। जब कि दूसरे नंबरमें मनुष्य तथा तीसरे नम्बरमें क्वचित् तिर्यच आते हैं। यह ज्ञान सम्यगदृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि दोनोंमें होता है। सम्यग्दृष्टिमें सदसत् बुद्धि विवेकपूर्ण होता है इसलिए उसके ज्ञानको 'अवधि' शब्दसे पहचाना जाता है और मिथ्यादृष्टिमें असत् अज्ञान बुद्धिके कारण सदसत्का विवेक नहीं होता, जिसके कारण उसमें प्रस्तुत प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर भी 'विभंग' शब्दसे पहचाना जाता है। . - यह ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनके निमित्तके बिना रूपी पदार्थमें द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी मर्यादासे युक्त प्रत्यक्ष बतानेवाला होता है / .... यह ज्ञान विभिन्न आत्माओंके क्षयोपशमकी अनेक विचित्रताओंके कारण अनेक प्रकारकी विचित्रताओंसे युक्त प्राप्त होता है / इसके असंख्य प्रकार हैं। लेकिन इन असंख्य प्रकारोंका वर्णन करना असंभवित होनेसे उनके संक्षेपमें मुख्य प्रकार करके पुनः उनके छः उपभेदोंका वर्णन किया जायेगा। - प्रथम इसके दो प्रकार बनते हैं। 1. मैं(प्रत्ययिक और 2. गुणप्रत्ययिक। जो अमुक भवस्थलकी ( देव नारककी) प्राप्तिके कारणसे ही जन्म लेनेके साथ ही अवश्य प्राप्त हो जाता है, वह भवप्रत्ययिक है और जो विशिष्ट तप-संयमादि गुणोंकी आराधनाके प्रभावसे प्राप्त होता है वह गुणप्रत्ययिक है। भवप्रत्ययिकके लिए कोई दृष्टांत देना चाहते हैं तो पशु-पक्षीका ही दे सकते हैं। जिस तरह पशु अपने भवस्वभावसे एक बार पानी पीते हैं, पक्षीगणको आकाशमें 627. सत्में असत् तथा असत्में सत् की जो बुद्धि होती है वह / 628. भवप्रत्ययिक वास्तवमें तो गुणप्रत्ययिक ही होता है / क्योंकि वहाँ भी क्षयोपशम हेतु उपस्थित है ही जो जनमके साथ ही कारणरूप बनता है / इस लिए देव नारक का भव भी क्षयोपशममें कारणरूप माना जाता है। 629. प्रायः ऐसा देखा गया है /