________________ सूर्य-चन्द्र सम्बन्धमें समज ] गाथा 76-77 [ 159 सर्वज्ञके मतसे एकचित्त होकर श्रुतके अनुसार सोचें'। इस कथनमें गंभीर उद्देश्य समाविष्ट है / महर्षि ने हमें संक्षिप्तमें समझा दिया कि-अगर आगमप्रमाण या सर्वज्ञप्रमाण वस्तुओं पर श्रद्धा नहीं रखेंगे, तो समग्र चौदह राजलोकका स्वरूप ऐसा आश्चर्यकारक है कि जो स्वरूप अन्य किसी भी दर्शनमें किसी भी स्थान पर नहीं है, मात्र जैन दर्शनमें ही है; (क्योंकि यह सर्वज्ञ भगवंतका कथन है।) फिर तो उन पर श्रद्धा ही नहीं रहेगी, क्योंकि जहाँ युक्तियाँ काम नहीं आतीं ऐसे अतीन्द्रिय पदार्थोको युक्तिसे कैसे समझाए जाएँ ? और अपनी बुद्धिकी मर्यादा कितनी ? कूप-मंडूक जितनी, और ज्ञानीके ज्ञानकी अगाधता कितनी ? गाँवोंके ग्रामीण लंदन, पेरीस, न्यूयोर्क जैसे शहरोंकी महानता और सुरम्यताको ग्राम्य दृष्टिसे समझ भी क्या सके ? अतीन्द्रिय पदार्थोंकी श्रद्धाके लिए 'नंदीवृत्ति में श्रीमान् मलयगिरिजी महाराजने भी कहा है कि अंतीन्द्रिये च संसारे, प्रमाणं न प्रवर्तते' ___ इस बचनका अनुसरण करके हे भव्य आत्माएँ ! आप भी सर्वज्ञभाषित वचनमें श्रद्धालु हों; जिस श्रद्धाको पाकर, परंपर कर्मक्षय करते करते केवलज्ञान प्राप्त करके, स्वतः सर्वज्ञता प्राप्त करके, सर्व वस्तुओंको आत्मसाक्षात् करनेवाले हो सकों / विशेषतः इन असंख्यात द्वीप-समुद्रोंकी रत्नमय जगतीओंका प्रमाण एक समान होनेसे देवोंको अर्थवा वैसे विशिष्टज्ञानियोंको वह कितना आश्चर्यजनक लगता होगा ! इस प्रकार तीसरा परिशिष्ट पूर्ण हुआ // DOR preocacracacavacaco.cacare सर्वद्वीपसमुद्रायाश्रयी चन्द्र-सूर्यसंख्याकरण है तथा अन्तरविचार / Scemencemen e miercenrama . अवतरण-पहले असंख्यात द्वीप-समुद्रका वर्णन करनेके बाद पुनः ज्योतिषी निकायका विषय ग्रहण करते हुए प्रथम मनुष्यक्षेत्रमें कितने चन्द्र-सूर्य होते हैं ? यह बतानेसे पहले असंख्य द्वीप-समुद्रोंमेंसे, कौनसे द्वीप-समुद्र में कितने-कितने चन्द्र-सूर्य होते हैं ? इसके लिए दो गाथाओं द्वारा 'करण' उपाय बताते हैं / ... इस विषयमें तीन मत प्रवर्तित हैं। उनमें ग्रन्थकार महर्षि प्रथम अपना मत बताते हैं कि