________________ * नरकगतिप्रसंग में प्रथम स्थितिद्वार * 6. परवशता-(पराधीनता)-उनकी पराधीनता हमसे भी अनंतगुनी त्रासदायी होती है। 7. ज्वर-इनका ज्वर (बुखार) इतना जोरों का होता है कि अपने से अनंतगुना दुःखदायक और जीवनपर्यंत रहनेवाला होता है / ८-दाह-९-शोक-१०-भय--इस से शरीर पर दाह, शोक-विलाप और भय ये तीनों वेदनाएँ हमसे मी अनंतगुनी इन्हें होती है / साथ ही उन्हीं (मिथ्यादृष्टिवाले) नारकों को भवस्वभावगत प्राप्त होनेवाला विभंगज्ञान भी बडा दुःखदायी होता है, क्योंकि वह अशुभ जाति-स्थान का होने से उसी ज्ञान द्वारा चारों ओर से वे आनेवाले निरंतर दुःख के वैरी-शस्त्रादिक कारणरूप साधन देखते हैं। अभी आयेंगे ! ऐसा करेंगे ! ! वैसा करेंगे !!! इत्यादि भयरूप वे हमेशा डरते-कंपते ही रहते हैं। इस तरह दस प्रकार की क्षेत्रगत वेदना कह-सुनायीं [208] (क्षेपक गाथा 46-47) अन्योन्यकृत वेदना प्रथम अन्योन्यकृत प्रहरण-शस्त्र-वेदना नारक दो प्रकार के होते हैं। एक सम्यग्दृष्टि और दूसरे मिथ्यादृष्टि / इनमें जो मिथ्यादृष्टि हैं उनकी दृष्टि मिथ्या होने से उनमें भेदज्ञान या अच्छे-बुरे का विवेकज्ञान होता नहीं है। दृष्टि के इसी विपर्यास के कारण वस्तु स्वरूप को जिस तरह देखनापहचानना चाहिए उसी प्रकार वे पहचानते नहीं है, उलटा विपरीत ढंग से या तो उल्टी रीति से मानते हैं; और इससे वे दुःख की तह की ओर न देखते हुए वर्तमान में दुःखका साधनों की ओर ही लक्ष्य करते हैं। इसी कारण से दुःख के निमित्त या प्रसंगों में वे-सामनेवाले व्यक्ति या चीज की ओर ही तीन-तीवतर-तीव्रतम क्रोधादिक कषाय करते हैं। तथा पुनः पुनः नया कर्मबंद उत्पन्न किये जाते हैं / असत् तथा असार दृष्टि के कारण कषायों को कटु विपाक कैसे-कैसे भुगतने पडेंगे इसका होश शायद उनमें नहीं हैं। तथा एकान्त दुःख देनेवाले की ओर लक्ष्यवान् बना होने से अपने विरोधी बल या जीवों के प्रति यकायक ताडन-तर्जनादिक के तुफानों में डूबा हुआ रहता है। अपने दोषों. का इन्हें दर्शन होता ही नहीं है और बाद में दोनों पक्षों को कदर्थना ही भुगतनी पडती है।