________________ * श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ऐसी वेदना सतत सहन करनेवाले नारकियों को अगर वहाँ से उठाकर किंशुक (पलाश, पलाश का फूल) समान लाल-लाल जलते ऐसे खदिर (खैर) के अंगारों के ढेर पर बिठाये जाएँ और बाद में फिर से इन्हीं अंगारों को बहुत तपाये या फॅके जायें, तो भी ये जीव [चंदन से लिप्त और मसूण ( शीत ) पवन खाने से भी अनुपम सुख पानेवाले किसी पुरुष की तरह ] सुख पाते ही निद्रावश हो जाते हैं / अथवा. नरक की अनुपमेय गर्मी के अनुभव के आगे, ये खदिर के अंगारे तो ( महागर्मी से रीढ बनी हुई उसी काया को ) ठंडे लगते हैं / जरा सोचिए कि नारकजीवों को जो भुगतनी पडती है वह गरमी कैसी होगी ? नरकमें सिर्फ नारकों का अपना ( नरकावासोंका) उत्पत्ति स्थान ही हिम जैसा शीतल होता है / शेष समग्र भूमि खदिर के अंगारे से भी अधिक गर्म होने से उसकी तीव्र वेदना भुगतनी पडती है / - प्रथम रत्नप्रभा में उष्णवेदना अति तीव्र है, इस से अधिक उष्णवेदना अति तीव्ररूप से शर्कराप्रभा में, उससे अधिक अतितीव्रतम रूप से वालुकाप्रभा में हैं। चौथी पंकप्रभा में ऊपरितन भागपर वर्तित कुछ-कुछ नरकावासाओं में उष्णवेदना और नीचे के कुछ कुछ नरकावासाओं में शीतवेदनानुभव मिलता है, पाँचवीं धूमप्रभा में कुछेक नरकावासाओं में शीतवेदना और नीचे कुछेक में उष्णवेदना / इस वेदनाको चौथी पृथ्वी की अपेक्षा उत्तरोत्तर अनंतगुनी अर्थात् कि तीव्र-तीव्रतर-तीव्रतमरूप जाने-समझें / छठी तमप्रभा में केवल महाशीत वेदना ही है जिसे पाँचवीं से अति तीव्रतर जानें, और सातवीं तमस्तमा पृथ्वी में महाशीतवेदना है जो इससे भी अतितीव्रतम है / / 3. क्षुधा-भूख तो प्रतिपल और प्रतिक्षण जागृत बैठी ही है। और नारकियों का जठरामि इतना तो तीव्र प्रदीप्त होता है कि बार-बार डाले गये सूखे काष्ठों से प्रज्वलित अग्नि की तरह, अतितीव्र क्षुधामि से सदा दसमान उदर-शरीरवाले रहते हैं। अगर वे समम जगतवर्ती अन्न-घृतादि पुद्गलों का आहार करें तो भी तृप्त होते ही नहीं हैं, लेकिन इससे विपरीत अपने अशुभ कर्म के उदय से अमनोज्ञ पुद्गल ग्रहण से उनकी क्षुधा बढती ही जाती है। 4. तृष्णा-इनकी तृष्णा तो हमेशा कंठ, ओष्ठ, तालु और जिह्वादिक को सुखानेवाली, सारे समुद्र के अगाध जलका पान करने से भी तृषा शान्त न हो वैसी होती है / 5. कंड-(खरज)-इन्हें दुःखदायी खरज की खुजली ऐसी होती है कि उसे आरी या छूरे से कुतरने पर भी शान्त नहीं होती है।