________________ * नरकगतिप्रसंग में द्वितीय भवनद्वार इस तरह दस प्रकार के अशुभ पुद्गल अंजाम नारकी के लिए अवश्य होते ही हैं। [207] (प्रक्षेपक गाथा 45) अवतरण-क्षेत्रगत स्वाभाविक उत्पन्न होते दुःखदायी नतीजों को दिखानेके बाद अब नारकीय जीवों में अन्य दस प्रकार की वेदना का अनुभव बताते हैं तथा छट्ठी एवं सातवीं पृथ्वी के नारकों में कितने रोग होते हैं यह संख्या भी बताते हैं। नरया दसविहवेयण, सीओसिण -खुहा पिवास कंडूहि / परवस्स जरं दाहं, भयं सोग चेव वेयंति // 208 // पणकोडी अट्ठसठ्ठी लक्खा, नवनवइसहसपंचसया / चुलसी अहिया रोगा, छट्ठी तह सत्तमी नरए // 209 // [प्रक्षेपगाथा 46-47 ] गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 209 // विशेषार्थ क्षेत्रवेदना में दूसरी दस प्रकार की वेदनाओंका भी जो अनुभव नारकों को मिलता है उन्हें बताते हैं - 1. शीतवेदना—पौष ( पूष) या माघ महीने की रात में, हिमालय पर्वत पर, स्वच्छ आकाश में, बिना अग्नि, किसी वायु की व्याधिवाले किसी नग्न दरिद्री को, सतत पवन के जोरसे हृदय, हाथ, पैर, दांत और होठ कंपते हों और उस के ऊपर शीत जल के छटकाव से जो शीत-ठंडी वेदना उत्पन्न होती है, उससे भी अनंतगुनी शीतवेदना नरकावास गत नारकी के जीवों को होती है / __अगर उसे नरकावास से उठाकर माघ मास की किसी एक रात्री में पूर्ववर्णित ऐसे किसी भी स्थान पर लाकर रखें तो वह नारक जीव अनुपम सुख की प्राप्ति करता हो उसी तरह निद्राधीन हो जाता है अर्थात् नरक में उसने महाव्यथाकारक जिस शीत वेदना बरदाश्त ( सहन ) की है उसके हिसाब से तो यह वेदना उसे अधिक सुखदायी लगती है। 2. उष्णवेदना-गर्मी के दिनों में प्रचण्ड सूर्य का मध्याह तपता हो, अवकाश में छाया के लिए कोई बादल भी न हो, उसी समय बिना छत्र, पित्त की व्याधिवाले किसी पुरुष को चारों ओर से प्रज्वलित अग्नि के ताप से जो पीडा उत्पन्न हो, उससे भी अनंतगुनी उष्ण वेदना नरक में स्थित नारकीय जीवों को मिलती है / वृ. सं. 2