________________ * 284. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ओजप्रदेश धनवृत्त-प्रतरकी बात पूर्ण करनेके बाद अब घन समजाते हैं / यह घन सप्तप्रदेशी सप्तप्रदेशावगाही होता है। पूर्वोक्त पंचप्रदेशी प्रतरवृत्त के मध्यके अणु के ऊपर तथा नीचे एक एक अणु स्थापनेसे (रखनेसे) 5+2=7 प्रदेशी संस्थानका निर्माण होता है। युग्मप्रदेश धनवृत्त-यह प्रदेशवृत्त बत्तीस प्रदेशी और बत्तीसावगाही है। पूर्वोक्त बारह प्रदेशी प्रतरवृत्त बनाकर उसके ऊपर दूसरे बारह प्रदेश रखनेके बाद उन्हीं हरेकके मध्यमें चार और इन्हीं सभी के नीचे फिरसे चार अणु स्थापनेसे घनवृत्ताकार बन जाता है / ३-ज्यस्र (त्रिकोण, त्रिभूजाकार) ओजप्रदेशी प्रतरत्र्यस्र-यह संस्थान त्रिप्रदेशी और त्रिप्रदेशावगाही होता है। तिरछे (वक्र) अंतररहित दो अणु पहले रखिए / इसके बाद पहलेके नीचे एक अणु रखनेसे त्रिप्रदेशी संस्थान बन जाता है / युग्मप्रदेशी प्रतरत्र्यस-यह संस्थान छः प्रदेशी और छः प्रदेशावगाही है। अंतर-.. रहित तिरछे तीन अणु पहले रखिए। इसमें पहले तिरछे अणुके ऊपर तथा नीचे दोदो अणु रखनेसे तथा दूसरे तिरछे अणुके नीचे मी एक अणु स्थापनेसे इष्टाकार बन जायेगा। ओजप्रदेशी घनव्यस्र-यह संस्थान 35 प्रदेशी तथा इतने ही प्रदेशावगाही है / इसकी रचना करनेके लिए सबसे पहले अंतररहित-संलग्न ऐसे ऐसे तिरछे पाँच अणुकी स्थापना करें / उसके बाद इसी हरेकके नीचे तिरछे ही क्रमशः चार, तीन, दो और एक ऐसे पाँच प्रदेशोंकी स्थापना करें, इस प्रकार पंद्रहप्रदेशी प्रतर हुआ। अब इसके ऊपर हरेक पंक्तिके अन्त्याणु ( अंतिम अणु ) को छोड़कर छः, इसी प्रकार तीन और एक अणु रखें / इस प्रकार अब कुल मिलाकर 35 प्रदेशात्मक घनव्यस्र बन जायेगा। युग्मप्रदेशी घनत्यत्र-यह संस्थान चार प्रदेश तथा चार प्रदेशावगाढ है / प्रतरके समय हमने जिस प्रकार त्रिप्रदेशात्मक त्रिकोणप्रतर बनाया था उसी प्रकार बनाकर उसके ऊपर तथा नीचे एक-एक अणु स्थापनेसे घन आकार बन जाता है / ४-चतुरस्त्र ओजप्रदेशी प्रतरचतुरस्र-यह संस्थान नौ प्रदेशी नौ प्रदेशावगाही है / इसमें तिरछी संलग्न तीन-तीन प्रदेशात्मक तीन पंक्तियाँ स्थापनेसे नौ प्रदेशी आकृतिका निर्माण होता है। युग्मप्रदेशी. प्रतरचतुरस्र-यह चार प्रदेशी और चार प्रदेशावगाही है। यह तिरछे दो-दो प्रदेशकी दो पंक्तियाँ बनानेसे होता है /