________________ 272 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 92-93 --- --- अनुभव होता है / वे अनुकूल राशिमें आए हों तो सुख और प्रतिकूल हुए हों तो दुःख-पीडाएँ देते हैं अतः निःस्पृह, निर्ग्रन्थोंको भी प्रव्रज्यादि शुभकार्य सूर्य-चन्द्र-ग्रहनक्षत्रादि बल देखकर करनेका ज्ञानी महर्षियोंने शास्त्रोंमें कहा है। 4. टिप्पणी 241 (पृ० 236 ) सूर्य-चन्द्रमें पहला कौन हो सकता है ? इसका इस परिशिष्टमें खुलासा देनेका था. परन्तु यह विषय अधिक चर्चित होनेसे दूसरे भी कतिपय विषय समझाने पड़ते और ग्रन्थ-विस्तार बढ़ता जाए इसलिए अत्र खुलासा नहीं दिया है। // समाप्तं पंचमं परिशिष्टम् // practicaco.cocacoracay 1 चौथी वैमानिक निकायका वर्णन // , carcenercarcancernancancer अवतरण - पहले सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिषीनिकाय विषयक सविस्तर वर्णन करके अब दूसरे ‘भवन' द्वारमें ही अवशिष्ट चौथे वैमानिकनिकाय विषयक वर्णन शुरू करते हुए : ग्रन्थकार महाराज प्रथम दो गाथाओंसे प्रतिकल्पको विमान संख्याका प्रमाण दर्शाते हैं। बत्तीसऽदावीसा बारस अड चउ विमाणलक्खाई / पन्नास चत्त छ सहस्स. कमेण सोहम्ममाईसु / / 92 // दुसु सयचउ दुसु सयतिग-मिगारसहियं सयं तिगे हिट्ठा / मज्झे सत्तुत्तरसय-मुवरितिगे सयमुवरि पंच / / 93 // गाथार्थ -विशेषार्थवत् / / / 92, 93 // विशेषार्थ - प्रथम 'वैमानिक' अर्थात् 'विशिष्टपुण्यैर्जन्तुभिर्मान्यन्ते-उपभुज्यन्त इति विमानानि, तेषु भवा वैमानिकाः' || विशिष्ट पुण्यशाली जीवोंसे जो भोगने योग्य हैं वे विमान कहलाते और उनमें उत्पन्न हुए वे वैमानिक कहलाते हैं। इस वैमानिकदेवनिकायमें से प्रथम सौधर्म कल्पमें [वनमय बो] 32 लाख विमान हैं, इशानकल्पमें 28 लाख, सनत्कुमारकल्पमें 12 लाख, माहेन्द्रमें 8 लाख, ब्रह्मकल्पमें 4 लाख, लांतककल्पमें 50 हजार, महाशुक्रमें 40 हजार, सहस्रारमें 6 हजार, आनतप्राणत दोनोंके होकर 400, आरण-अच्युत दोनों कल्पके कुल 300, नवप्रैवेयकाश्रयी पहली तीनों गोयकोंके 111, मध्यम प्रै त्रिकके 107 और उपरितन प्रै० त्रिकमें 100 और उसके ऊपर अनुत्तरकल्पमें पांच विमान संख्या है।