________________ ज्योतिषी निकायाश्रयी परिशिष्ट ] गाथा-९१ [ 271 सम्प्रति प्रगटप्रभावकश्रीअजाहरापार्श्वनाथाय नमः // ज्योतिषी निकायाश्रयी पाँचवां लघु परिशिष्ट-(५) / 1. जब ज्योतिष्क इन्द्रको देवांगनाओंके साथ दिव्य विषयादि सुखोंको भोगनेकी इच्छा हो तब अपनी सभाके बिच वृत्ताकारमें एक बृहद् स्थान विकुर्वते (बनाते ) हैं / वैसे चक्राकारवाले स्थानके ऊपर सुन्दर-रमणीय-मनोज्ञ और दिव्य भाग रहा होता है / जिसके ऊपर ये देव एक बड़ा सुन्दर प्रासाद बनाते हैं / जो 500 यो० ऊँचा, 250 यो० विस्तृत, दिव्य प्रभाके पुंजसे व्याप्त होता है / उस प्रासादका ऊपरका भाग चित्रविचित्र पद्म-लता-चित्रकारीसे अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय होता है, मणिरत्नोंके स्पर्शवाला है / इस प्रासाद पर आठ योजन ऊँची एक मणिपीठिका होती है / उस मणिपीठिका पर एक बड़ी देवशय्या विषयसुखार्थ विकुर्वती (बनाई ) है / जो शय्या अत्यन्त सुकोमलदिव्य-उत्तमोत्तम होती है / जिस शय्यामें इन्द्र अपने अपने परिवारयुक्त स्वपटरानियोंके साथ गांधर्व और नाट्यानीक इन दो प्रकारके अनीकयुक्त आनन्द करता हुआ, नाटय, गीत, वाद्यादिक शब्दोंके मधुर नादोंसे प्रफुल्लित होता, अग्रमहिषी तथा उसने प्रेम-भक्तिसे, इन्द्र के सुखार्थ विकुर्वित दूसरे हजारों प्रतिरूपोंके साथ, इन्द्र भी स्व-वेदोपशमन करने उतने ही रूपोंको विकुर्षित करके, उस दिव्य-सुमनोहर मनको अनुकूल ऐसी अत्यन्त सुकोमल देवांगनाओंके साथ मनुष्यकी तरह सर्वाङ्ग युक्त हुआ, अन्तमें देवांगनाओंके शरीरोंको बल देनेवाले, कान्ति करनेवाले वैक्रिय जातिके वीर्य-पुद्गलोंको प्रक्षेपित करता हुआ विषयोपभोगसे निवृत्त होता है। इसी तरह यथायोग्य अन्य निकायोंमें विषयभोग प्रासादिककी व्यवस्था सोचें / 2. पृष्ठ १९२में चालू टिप्पणीमें पीछेसे " विशेषतः यह भी" यह परिच्छेद लिखा गया है / उसमें अन्य द्वीप-समुद्रोंमें आदि और अन्तके 50 हजार यो० वर्जित करनेका जो नियम है उस नियमको बाजूमें रखकर विचारणा चलाई है परन्तु वैसा - न विचारें किन्तु आदि और अन्तके 50 हजार योजन वर्जित करके अवशिष्ट क्षेत्रमें लाख लाख योजनके अन्तर पर उस उस पंक्ति संख्याको यथायोग्य संगत रखना युक्त है, यदि वैसा न सोचे तो उसी परिच्छेदके अनुसार तो स्वयंभूरमण समुद्रके अन्तिम भागमें (50 हजार यो० वर्जित करनेका बाजू पर रक्खा होनेसे ) एक पंक्ति माननी ही पड़े और अगर वैसा माने तो उसका प्रकाश कहाँ जाए ? क्योंकि समुद्रान्त पर अलोक शुरू होता है, इसलिए यह विचारणा योग्य नहीं लगती। . . 3. इस ज्योतिश्चक्रके आधार पर प्राणियोंको शुभाशुभ प्रवृत्तिमें सुख-दुःखका