________________ व्यन्तरोंके भवनका वर्णन ] गाथा 31-33 [ 93 * बालक बड़ा होने पर भटकता फिरता है और जहाँ अच्छा लगे या अच्छा दिखाई दे वहाँ दौडता है अथवा बैठ जाता है। वैसे देवताकी जातिमें भी व्यन्तर ऐसे देव हैं कि जहाँ-तहाँ भटकते हैं और अच्छा लगे वहाँ घुस जाते हैं अथवा अड्डा जमा देते हैं। वृक्षों, बगीचों, खाली मुकामों, पहाडों-पर्वतों-गुफाओं पर अपना स्थान जमा देते हैं / इतना ही नहीं लेकिन मनुष्यकी बस्तीमें या जंगलमें जहाँ अच्छी जगह मिली कि बैठ जाते हैं और अधिकांशरूपसे अन्योंके लिये (दुःखदायक) कष्टप्रद भी बन जाते हैं / (31) अवतरण-इन व्यन्तरोंके नगरवर्ती भवनोंका और भवनपतिके भवनोंका बाह्य और भीतरी आकार कैसा होता है ? यह बताते हैं चाहिं वट्टा अंतो, चउरंस अहो अ कण्णियायारी / . भवण वईण तह वन्तराण, इन्द भवणा उ नायव्वा // 32 // [प्र० गा० सं० 4] गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 32 // विशेषार्थ-उन व्यन्तरदेवों के भवन बाहरके हिस्से में गोलाकारवाले होते हैं और अन्दरके हिस्से में चौ-कोन होते हैं, तथा अधोभागमें कमलपुष्पकी कर्णिकाके आकारमें रहते हैं। . उपर्युक्त आकृतिवाले भवन उस भवनपतिके इन्द्रोंके और व्यन्तरेन्द्रोंके जानें / इन भवनोंके चारों ओर किले और खाने होती हैं / उन नगरोंके भव्य दरवाजे होते हैं / किंकरदेव उनकी सतत रक्षा करते हैं। [32] (प्र० गा० सं० 4) अवतरण-उन भवनोंमें व्यन्तरदेव कैसे आनन्दसे अपना काल व्यतीत करते हैं ? यह बताते हैं: तहिं देवा वन्तरिया, वरतरूणी-गीय-वाइय-रवेणं / निचं सुहिय-पमुइया, गयंपि कालं न याणंति // 33 // [प्र० गा० सं०५] गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 33 // विशेषार्थ-उन भवनोंमें व्यन्तरदेष-सतत गतिघाले अत्यन्त सुन्दर, तरुण देवांगनाओंके अति मधुर, कर्णप्रिय और आह्लादक गीत गानोंसे तथा भेरी, मृदंग, वीणा भादि अनेक प्रकारके, मनोरंजन द्वारा उत्तेजित करनेवाले दिव्य वाद्योंके मधुर नादसे, प्रेमरसको पुष्ट करनेवाले, दिलको बहलानेघाले, विविध प्रकारके उत्तम और दिव्य नाटकोंके कारण निरन्तर सुखमें तल्लीन और आमोद-प्रमोदकी सामग्रीयोंसे आनन्दमें इतने निमग्न रहते हैं कि