________________ 92 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-३१ अथ प्रस्तुत द्वितीय भवनद्वार प्रसंग पर व्यन्तरोंके भवन आदिका वर्णन, अवतरण-अब व्यन्तरदेवोंके सम्बन्धमें वक्तव्य प्रारम्भ करते हुए प्रथम व्यन्तरदेवके भवनों (नगरों )का स्थान बताते हैं; रयणाए पढ़मजोयण,-सहस्से हिटुवरिसय-सय विहणे / वन्तरयाणं रम्मा, भोमा नगरा असंखेज्जा // 31 // गाथार्थ-रत्नप्रभानारकीमें प्रथम अर्थात् ऊपरके हजार योजनमें नीचे तथा ऊपर .. सौ सौ योजन छोड़कर, अवशिष्ट 'आठसौ योजनमें व्यन्तरदेवोंके भूमिके अन्दर वर्तित असंख्याता सुन्दर नगर हैं // 31 // विशेषार्थ-" व्यन्तर" इस शब्दका अर्थ क्या ? " विविधमन्तरं वनान्तरादिकमाश्रयतया येषां ते व्यन्तराः" अर्थात् अलग अलग प्रकारके वन आदिके जो अन्तर हैं वे ही अन्तर जिनके आश्रयरूप हैं अर्थात् वैसे वन आदिके अन्तरोंमें विशेष करके जो रहते हैं, वे व्यन्तर कहलाते हैं। व्यन्तर वनके अन्दर और पर्वत तथा गुफा आदि स्थानोंमें रहते हैं, यह बात लोकमें भी प्रसिद्ध है। ___अथवा यदि दूसरा अर्थ लें तो 'नरेभ्यो विगतमन्तरं ते व्यन्तराः' अर्थात् 'मनुष्यरूपमें वर्तित चक्रवर्ती आदिकी सेवामें, देव होने पर भी जिन्हें रहना पड़ता है, मनुष्य और देवके बीचका जो अन्तर चला गया है जिनका' इससे भी वे व्यन्तर कहलाते हैं। क्योंकि देव होने पर भी मनुष्योंके साथ वे हिलते-मिलते-जुलते रहनेवाले हैं। ____चौदह राजलोसमें ऊर्ध्वलोक, तिर्छालोक और अधोलोक ऐसे तीनलोक हैं। ऊर्ध्वलोकमें देव-निवास विशेष है। तिर्छालोकमें मनुष्य तिर्यचका निवास विशेष है और अधोलोकमें नारक जीव जिनमें हैं-वे रत्नप्रभादि नरक-पृथ्वियाँ हैं। उनमें पहली रत्नप्रभानारकीके एक लाख अस्सी हजार (1,80,000) योजन मोटे पिण्ड-प्रमाणमेंसे ऊपर और नीचे एक एक हजार योजन छोड़कर अवशिष्ट एक लाख अठत्तर हजार पृथ्वीपिण्डमें भवनपतिदेवोंके भवन हैं। ___ अब ऊपर छोड़ दिये गये उन एक हजार योजनोंमेंसे ही पूर्वकी तरह उभयस्थानोंसे (नीचे-उपरसे) सौ सौ योजन छोड़ दें, क्योंकि अवशिष्ट आठसौ योजनों में व्यन्तरदेवोंके रत्नप्रभापृथ्वीके अन्दर रमणीय-सुन्दर ऐसे असंख्यात नगर हैं। साथ ही मनुष्यक्षेत्रके बाहरके द्वीप-समुद्रोंमें इन्हीं व्यन्तरोंकी असंख्यात नगरियाँ आई हैं, जिसका स्वरूप श्री जीवाभिगमादि शास्त्रोंसे जान लें /