________________ * 118 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * सिद्ध होने पहलेकी (अंतिम भवकी) अवस्थाको उद्देशित करके सिद्धके पंद्रह प्रसिद्ध भेदो हैं, जो नवतत्त्वप्रकरण में आ गये हैं / 1. जिनसिद्ध (तीर्थकर रूपमे सिद्ध होता है) 2. अजिन सिद्ध (तीर्थकर पद रहित) 3. तीर्थसिद्ध (तीर्थ स्थापनाके बाद जानेवाले) 4. अतीर्थसिद्ध (तीर्थ स्थापनाके पहले जानेवाले) 5. गृहलिंगसिद्ध (गृहस्थ वेषमें मोक्ष में जानेवाले) 6. अन्यलिंगसिद्ध (43 °संन्यामी, तापसादि अतीतके वेषमें रहकर मुक्तिमें जानेघाले) 7. स्वलिंगसिद्ध (जैन मुनिके वेषमें ही जानेवाले) 8. स्त्रोलिंगसिद्ध (बीजातिके चिह्नवाले देहसे मोक्षमे जानेवाले )9. पुरुषलिंगसिद्ध (पुरुषके चिह्नवाले देहसे जानेवाले) 10. नपुंसकलिंगसिद्ध (नपुंसकसूचक देहाकृतिसे मोक्षमे जानेवाले) 11. प्रत्येकबुद्धसिद्ध (गुरुके उपदेशके बिना बैरागका कोई निमित्त पाकर संजम लेकर मोक्षमें जानेवाले) 12. स्वयंबुद्धसिद्ध (गुरू उपदेशके बिना भी स्वकर्म कमजोर पडते ही वैराग्योदभव होनेसे दीक्षा लेकर मोक्षमें जानेवाले) 13. बुद्धबोधितसिद्ध (गुरुका वैराग्योपदेश पाकर संजम लेकर मक्तिमे जानेवाले) 14. एकसिद्ध (एक समय में एक ही मोक्ष जावे) और 15. अनेक सिद्ध (पक समय में अनेक मोक्षमें जाएँ वे) इन भेदोंको संक्षिप्त भी किये जा सकते हैं। जो मनुष्य गतिशील, पंचेन्द्रिय, त्रस, भव्य, संज्ञी, यथाख्यात * चारित्री, क्षायिक सम्यकत्वी. अनाहारी. केवलशान तथा केवलदर्शनी हो वही मोक्षमें जा सकता है। अर्थात कथित मार्गणामेंसे ही मोक्ष होता है। समय समय पर मुक्तिगमन चालू ही होनेसे सिद्ध के जीवो अनन्ता हैं / वे लोकके असंख्यातवें अर्थात् पहले कहा है वैसे सिद्ध शिला पर 1 कोसके छठे भाग जितने आकाशक्षेत्र में रहते हैं / ये सब आत्माएँ समान सतह पर उपरसे लोकान्तको स्पर्श करके. रही हैं, लेकिन हरेक आत्माके आत्मप्रदेश लंबाई में समान रूपमे सज्ज नहीं होते परंत ऊँची नीची अवगाहना पर रहे होते हैं / अतः ऊपरसे समान दीखे लेकिन नीचेके भागमें समान पंक्तिमें न हों। ये जीव विषमावगाही-समावगाही होनेसे ज्योतिमें ज्योति मिल जाए इस तरह परस्पर अन्तर बिना व्याप्त होकर रहे हैं, अतः जहाँ एक सिद्ध है वहीं दूसरे अनंत सिद्ध हैं। सिद्ध होने के बाद उन्हें मृत्यु या जन्म कुछ भी नहीं होता / शाश्वत काल वहीं रहनेवाले हैं, जो बात पहले बताई गई है। साथ ही सिद्ध के जीव अयोगी, अलेशी, अकषायी, अवेदी है। सिद्धोका सुख कितना है ? सिद्ध परमात्माओंका जो सुख है वैसा सुख देव या मनुष्यको कदापि होता ही नहीं। देव, मानवके सुख अपूर्ण, अशाश्वत तथा दुःखमिश्रित हैं जबकि मुक्तिका सुख संपूर्ण, शाश्वत तथा दुःखके मिश्रण रहित अखंड-अमिश्रित सुख है / इस सुखका प्रमाण समझानेके लिए शास्त्रमें उदाहरण दिया है कि-तीनों कालमें उत्पन्न हुए चारों निकायके देव जो सुख भोग गये उसका, वर्तमानमें भोग रहे हैं उसका तथा भविष्यमें भोगेंगे उसका जोड करने पर अनंत प्रमाणका सुख होता है / इस अनंत सुखको एकत्र करके अनंत वर्गोसे वगित-गुणित किया जाने पर भी मोक्ष सुखके प्रमाणकी तुलनाके पात्र नहीं होता। 430. भावचारित्रकी स्पर्शना हुए समझना /