________________ शानद्वार-केबलबान . प्रति प्रदेशपर अनंत झानांश ( मात्राएँ ) प्रकाशमान होते हैं। एक प्रदेशमें अगर अनंत ज्ञानांश हैं तो ( आत्माके) असंख्य प्रदेशमें कितने होंगे इसकी कल्पना कर लेना। इस प्रकार केवलज्ञान अनंत पदार्थ प्रकाशक होनेसे उसे जो 'अनन्तु' कहा है, वह सान्वर्थक है / इसके समान दूसरा कोई ज्ञान ही नहीं है / इसीसे उसे शास्त्रों ' असाधारण' (अलौकिक) विशेषणसे सम्मानित किया गया है। ऐसी अनेक उपमाओं द्वारा इस ज्ञानका महिमा शास्त्रोंमें दिखाया गया है। आत्माकी मूलभूत साहजिक शक्तिके रूपमें यह ज्ञान होता है। किसीके मनमें अगर ऐसी शंका उत्पन्न होती है कि ऐसा ज्ञान धारण करनेवाले (केवलज्ञानी) क्या सचमुच हो सकते हैं ? यदि हाँ, तो उसका प्रमाण (सबूत) क्या ? तो इसका संक्षिप्त उत्तर यह है कि दुनियामें जो चीज अल्प मात्रामें होती है तो उसकी मात्राका अंतिम छोर भी होता है। जिस प्रकार कोई एक कुआँ पानीका छोटा-सा स्थान है तो इसका अंतिम छोर सागर स्पष्टरूपसे विद्यमान है। अथवा अल्प अवकाश (गगन)का अंतिम विराट आकाश है जो हमारे सामने है। उस प्रकार जो हम ज्ञानकी अल्प स्थिति सामान्य वर्गके जीवोंमें देखते हैं तो बादमें उत्तरोत्तर बढते ज्ञानांशोवाले जीव भी इस सृष्टि पर देखे जाते हैं। यह देखकर मनुष्यके मनमें कई बार ये तर्क उठते है कि यदि ऐसे ऐसे गहरे और महान् बुद्धिवाले विद्वान इस संसारमें देखे जाते हैं तो बुद्धि कितनी विराट (महान् ) होगी ? कितनी विशाल और असीम होगी ? (और इस प्रकारकी शंका मात्र ही केवलज्ञानके सबूतका सबसे बड़ा प्रमाण है। ) तो इस प्रकार उत्तरोत्तर आगे बढती बुद्धिका पर्यवसान भी ज्ञानकी कोई अंतिम विराट या असीम स्थितिमें होना ही चाहिए। तो इसका पर्यवसान केवल ' ज्ञानमें होता है जो ज्ञानकी पूर्ण अवस्था अथवा चरम सीमा है। यही ज्ञानका अंतिम छोर है इसलिए अब यहाँ अधिक ज्ञानके लिए अल्पांश भी जगह बचती नहीं है। निगोदके जीव (एक सूक्ष्म साधारण वनस्पति)का ज्ञान यह ज्ञानकी अत्यंत अल्पावस्था है। और केवलज्ञान ज्ञानकी अंतिम अवस्था है। इन दोनोंके बीच ज्ञानकी स्थितियाँ अनंत तारतम्ययुक्त समझ लें। इस ज्ञानके अस्तित्वकी सिद्धिमें दूसरा समाधान यह है कि-अनुमान भी सामने प्रत्यक्ष बनी हुई चीजोंका ही होता है। अर्थात् परोक्ष माने गए अनुमानगम्य पदार्थों के ____ 643. यहां सामान्यकक्षासे लेकर लब्धि अपर्याप्ता तक सूक्ष्म साधारण वनस्पतिका जीव ले सकते हैं। वृ. सं. 42