________________ * 294 . . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . 3. कापोत (धूसर अथवा कपोत वर्णका), 4. तेजो, 5. पद्म और 6. शुक्ल / ये सभी लेश्याएँ छः प्रकारके जीवोंके अध्यवसायों (प्रयत्न, उद्यम, कोशिश )को दिखाती हैं / इसलिए इन्हीं लेश्याओंसे उस हरेक जीवकी अधमता-उत्तमताकी कक्षा तय होती है। शुरुकी लेश्या एकदम अशुद्ध और अधम कोटिकी है। उसके बादकी दो अशुद्ध होने पर भी प्रारंभिक तीनोंकी एक-दूसरेकी दृष्टिमें पूर्वसे अधिक विशेषतायुक्त उत्तरकी है और अंतिम तीन तो शुभ होनेसे उत्तरोत्तर विकसित होती शुद्ध, शुद्धतर और शुद्धतम प्रकारकी बनती जाती है अर्थात् उत्तरोत्तर वे शुभ प्रकारकी हैं। 1. वर्ण-कृष्णलेश्या अति काले रंगकी, नीललेश्या तोतेके पीच्छके रंग जैसी हरी अथवा कापोत या मयुरके कंठ जैसी "नीले रंगकी, कापोत-लाल और नीले रंगके / मिश्रणसे उत्पन्न कावरे-चितकबरे रंगकी, तेजो लालचटक धुंधची (चिणोठी )के रंग जैसी, पद्मलेश्या चंपा के फूल जैसी पीले रंगकी और शुक्ललेश्या उज्ज्वल दूधसे भी अधिक श्वेतरंग जैसी होती है। 2. गंध-इनमें पहली लेश्या अत्यन्त दुर्गधयुक्त एवम् बदबूसे भरपूर, बादकी उससे कुछ कम, तीसरी उससे भी अधिक कम दुर्गधयुक्त होती है। फिर भी एक प्रकारसे ये तीनों दुर्गधयुक्त है ही और शेष तेजोलेश्या सुगंधयुक्त और उत्तरोत्तरकी लेश्या अधिकाधिक सुवासयुक्त होती है / 3. रस-कृष्णलेश्याका स्वाद अति कडुआ, नीलका अत्यंत तीखा, कापोतका खट्टा, तेजोका सुगंधित सुंदर आमके रसके स्वाद जैसा, पद्मका अंगुरके रस जैसा और शुक्ललेश्याका सक्कर-गुड़ जैसा मधुर है। 4. स्पर्श-पहली तीन लेश्याओंका स्पर्श शीत और रुक्ष है, जो चित्तके लिए अप्रसन्नकारक है। और अंतिम तीनका स्पर्श स्निग्ध उष्ण है जो चित्तके लिए परमसंतोपोत्पादक है। इन्हीं छः लेश्याओंमें प्रथम तीन लेश्याओंका वर्णादि चतुष्क अशुभ है। लेकिन उत्तरोत्तर यह प्रमाण कम होता जाता है। इस प्रकार तेजो इत्यादि अंतिम तीनोंका वर्णादि चतुष्क उत्तरोत्तर शुभ, शुभतर-तम प्रकारका समझना चाहिए। क्योंकि प्रारंभिक तीन लेश्याएँ मलिन और अप्रशस्त (निंदनीय) है इसलिए अशुभ होनेके कारण आत्माके 595. नील- शन्द प्राचीनकालमें खास तौरपर भूरे रंगके अर्थमें अधिक उपयोगी था। बाद में उसमें अनेक विकल्प आ गये हैं। साथ ही कुछ लोग नीलका अर्थ हरा और श्याम भी करते हैं /