________________ * 226 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ग्रहणके समय छः रचना या कार्योंके लिए उपयोगी पुद्गलोंको उपयोगमें लेता जाता है और बिन उपयोगी हों उन्हें साथ साथ ही छोड़ता जाता है। इस तरह छहों पर्याप्तियोंके पुद्गलोंकी रचनाका प्रारंभ तो प्रथम समयसे ही शुरु होता है। लेकिन समाप्ति साथमें नहीं होती इसे ध्यानमें रखना चाहिए / [338] अवतरण-यह गाथा पर्याप्तिके अर्थ रहस्यका प्रतिपादन करता है। अगरचे इसके पहलेकी गाथाओंमें पर्याप्तिके बारेमें बहुत ही चर्चा हो गई है। लेकिन वह टीका या ग्रन्थान्तरसे भाव द्वारा की। लेकिन संग्रहणीकर्ता को तो संग्रहणी की मूलगाथा द्वारा पर्याप्तिका अर्थ कहना था, जो इस गाथाके पहले कहा ही नहीं गया था / वह अर्थ कुछ विशेषरूपमें मूलगाथा द्वारा बताते हैं। आहारसरीरिंदिय, ऊसासवउमणोभिनिव्वत्ति। होइ जओ दलियाओ, करणं पइ सा उ पज्जत्ती // 339 // - गाथार्थ- दलियारूप पुद्गल समूहसे आहारादि छः कार्यों की रचना होती है उन दलिकोंका अपने अपने विषयरूप जो परिणमन और उस परिणमनके प्रति शक्तिरूप जो करण वह पर्याप्ति। इनमें जीव कर्ता, पुद्गलोपचयोत्पन्न शक्ति वह करण तथा. आहारादि परिणमन वह क्रिया है। यह गाथा क्लिष्टार्थक है। // 339 // विशेषार्थ-गाथा के अर्थसे यह स्पष्ट होता है कि कर्त्तारूप 'जीव' है। पुद्गलोपचय शक्ति वही 'करण' है और आहारादिका परिणमन वह 'क्रिया' है। ग्रन्थान्तरगत बताए गए पर्याप्तिके विभिन्न अर्थ 1. आहार आदि पुद्गलोंको ग्रहण करनेमें और तद्प परिणाम लानेमें पर्याप्ति नाम कर्मके उदयसे पुद्गलोपचय द्वारा उत्पन्न हुई जीवकी जो शक्ति वह / 2. शक्तिके आलंबन-कारणरूप जो पुद्गल वे। 3. शक्तिकी और शक्तिके कारणभूत पुद्गल समूहकी निष्पत्ति वह / 4. उन उन शक्तियोंके कारणभूत पुद्गल समूहकी क्रियाकी परिसमाप्ति / यह पर्याप्ति अर्थात् (अपेक्षासे ) एक प्रकारकी आत्मशक्ति / वह शक्ति पुद्गल समहके आलंबनसे होती है। आत्मा विवक्षित भवमें उत्पन्न हुई कि कोयलेमें प्रक्षिप्त अग्निकी तरह जीव तुरंत ही प्रतिसमय : आहार और शरीरादिके निर्माणके योग्य पुदगलोंको ग्रहण करने लगता है। और फिर वह कार्य जीवन पर्यंत चालू रहता है। लेकिन उस अग्निकी तरह जीवा तुरंत ही प्रतिसमय आहार