________________ मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रकी पंक्ति सम्बन्धमें मतान्तर ] गाथा 83-85 [ 189 चन्द्र-सूर्योकी व्यवस्था प्रथम जणाई होनेसे मनुष्यक्षेत्रके बाहरके पुष्करार्धमें बाकी बचे 72-72 चन्द्र-सूर्योको हम पूर्वोक्त दोनों मतकारोंके मन्तव्यके अनुसार परिरयाकारूप समझे या सूचीश्रेणिरूप समझे ? यह प्रश्न उपस्थित होता है / यद्यपि पंक्तिकी व्यवस्था तो परिरयाकारमें और समश्रेणिमें इस तरह दोनों प्रकारसे हो सकती है, तो भी 72-72 चन्द्र-सूर्योकी परिरयाकारमें व्यवस्था करनेसे सूर्य-चन्द्रका और सूर्य-सूर्यका तथा चन्द्र-चन्द्रका पचास हजार योजन और एक लाख योजनप्रमाणका जो अन्तर निश्चित किया है, उस निश्चयमें भंग होनेका प्रसंग उपस्थित होनेसे परिरय पंक्तिकी व्यवस्था उचित नहीं लाती, जब कि सूचीश्रेणीकी व्यवस्थाके लिए श्री सूर्यप्रज्ञप्तिके प्रमुख ग्रन्थों में स्पष्ट पाठ होनेसे (सामान्य दोष प्राप्त होने पर भी ) सूचीश्रेणीकी व्यवस्था ही मान्य रखनी उचित लगती है। इस 20 सूचीश्रेणि-समश्रेणिकी व्यवस्था भी दो-तीन प्रकारसे हो सकती है, उनमेंसे अमुक प्रकारकी व्यवस्थाके बारेमें ही इष्ट हो इस तरह आजूबाजूके उन साक्षीभूत पाठ होनेसे जरूर कबूल करना पड़ता है, जो 200 नम्बरकी टिप्पणी पढ़नेसे विशेष ख्यालमें आ सकेगा। २००-त्रिगुणकरणके अनुसार मनुष्यक्षेत्र बाहर चन्द्र-सूर्यकी व्यवस्था विषयक अल्पविचार // प्रथम मुख्य सैद्धान्तिक मत 'तिगुणा पुब्विलजुया'का जो है, उसी मतानुसार बाह्यपुष्करार्धमें 72 चन्द्र और 72 सूर्यकी कुल संख्या कही अर्थात् आठ लाख योजनप्रमाण बाह्य पुष्करार्धमें 72. चन्द्र और 72 सूर्य बताये हैं / . दिगम्बरीय मतानुसार और प्रसिद्ध मतानुसार उसी बाह्यपुष्करार्धक्षेत्र (के आठ लाख योजनप्रमाण विष्कम्भमें से प्रारम्भके और अन्तके पचास-पचास हजार योजन कम करनेसे शेष बचे सात लाख योजनप्रमाणक्षेत्र )में लाख-लाख योजनके अन्तर पर परिरयाकारमें चन्द्र-सूर्यकी आठ पंक्तियाँ बताई गई हैं, और उस प्रत्येक पंक्तिमें वर्तित उस उस चन्द्र-सूर्यकी संख्याको उक्त अन्तरानुसार संगत कर दिखाई गई है, वैसी इस सिद्धान्तकारके 'त्रिगुणकरण 'के मतानुसार प्राप्त होती चन्द्र-सूर्योकी संख्याको परिरय-वलयाकारमें संगत करना यह सोचने पर भी उचित नहीं लगती; क्योंकि परिरयाकारमें अगर ली जाए तो लाख लाख योजनके अन्तर पर आठ पंक्तियाँ माननी पड़े / और इस तरह माननेसे चन्द्र-सूर्यकी कुल संख्या जो १४४की है उसका बाह्यपुष्करार्धमें समावेश जरूरी होनेसे प्रत्येक परिरय पंक्तिमें कुल चन्द्र-सूर्यकी संख्या 18 जितनी अल्प प्राप्त होती है / इन 18 चन्द्र-सूर्योकी संख्याको प्रथम कहे गए 14546476 योजन प्रमाण परिधिमें पचास पचास हजार योजनके हिसाबसे सोचे तो पूर्वोक्त कही गई परिधिमें बहुत-सा क्षेत्र खाली रह जाए / साथ ही आगे-आगेकी परिरय पंक्तिकी परिधि विशेष प्रमाणवाली होनेसे उस परिधिका तो बहुतसा क्षेत्र चन्द्र-सूर्य हीन रहता है / इसलिए परिरयाकारमें पंक्तियोंको मानना, यह वैचारिक दृष्टिसे उचित नहीं लगता। . अब सूचीश्रेणीकी व्यवस्थाके लिए सोचेंमनुष्यक्षेत्रमें वर्तित सूचीश्रेणीके अनुसार रही हुई चन्द्र-सूर्यकी पंक्तिकी तरह, इस बाह्य पुष्करार्धमें