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________________ 188 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 83-85 OM जिसका सविशेष खयाल नीचेकी 198-199 नम्बरकी टिप्पणी पढ़नेसे आ सकेगा / दिगम्बरीयमत 'कर्मप्राभृत' ग्रन्थमेंसे. उद्धरित है, जब कि 83-84-85 गाथाओंसे कथित प्रसिद्ध आचार्यका मत किस ग्रन्थ परसे कहा गया है उसकी माहिती नहीं मिलनेके कारण ज्ञानीगम्य है, तो भी ये दोनों मतकार मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रकी व्यवस्था परिरयाकाररूप बताते हैं यह बात तो निश्चित है / __ मनुष्यक्षेत्रके बाहर सूर्य-चन्द्रोंकी संख्या तथा व्यवस्था बाबतमें जो दोनों मत ऊपर बताये उस अपेक्षासे सूर्य-चन्द्रकी संख्याके विषयमें बहुश्रुत पुरुष 'तिगुणापुव्विल्लजुया' इस गाथासे प्राप्त होता जो त्रिगुणकरण उसे ही सर्वमान्य जणाते हैं, जो बाबत प्रथम कही गई है / इस त्रिगुणकरणके अनुसार पुष्करवरद्वीपमें प्राप्त होती 144-144 चन्द्र-सूर्योकी संख्याको किस तरह व्यवस्थित करें इस बाबत पर विचार करनेकी आवश्यकता है / 144-144 चन्द्र-सूर्योंकी संख्यामेंसे मनुष्यक्षेत्रमें आए हुए अभ्यन्तरपुष्करार्धके 72-72 गाथाओंमें चन्द्र-सूर्यका पचास हजार योजन अन्तर न कहकर (मतान्तरसे ) 101017 योजन 3 भाग : (अथवा 244 भाग) प्रमाण अन्तर प्राप्त हो इसी तरह सूर्य-चन्दकी व्यवस्था बताई है। तथा गाथा ६६वींमें चन्द्रसे चन्द्रका और सूर्यसे सूर्यका साधिक एक लाख योजनप्रमाण अन्तर कहा है जब कि इन 83-84 गाथाओंके मतानुसार 202034 26 योजन प्रमाण अन्तर प्राप्त होता है और वह भी प्रथमकी पंक्तियों के लिए ही / अतः आगे आगेकी अन्य पंक्तियोंमें सूर्य-चन्द्रका अन्तर जाननेके लिए तो ऐसी व्यवस्था बताई है कि-उस परिरय पंक्ति स्थानमें जितनी परिधि आवे उस परिधिको उस पंक्तिगत चन्द्र-सूर्यकी संख्यासे बाँटनेसे उत्तरमें जितनी राशि आये, उतना अन्तर चन्द्र-सूर्यका समझना चाहिए / ___ इस तरह दिगम्बरमतकारने तो गाथा ६५-६६में कहे अनुसार पचास हजार योजन तथा साधिक लाख योजन अन्तर बताया है / अर्थात् वह अन्तर इस मतकारको मान्य है, परन्तु यह मान्यता उनकी प्रथम पंक्तिके लिए ही है या सर्व पंक्तियोंके लिए हैं ? बाह्य पुष्करार्धद्वीपके लिए ही है या किसी भी द्वीप-समुद्रके लिए है ? यह तो बहुश्रुत पुरुषोंके पाससे (शोचनीय) विचारणीय है क्योंकि यदि प्रथम पंक्तिके लिए है तो अन्य पंक्तियोंके लिए क्या समझे ? तथा पुष्करार्धद्वीपके पश्चात् पुष्करसमुद्र आदि द्वीप-समुद्रोंमें उनके मतानुसार प्रथम पंक्तिमें पूर्वद्वीप अथवा समुद्रकी प्रथम पंक्तिकी अपेक्षासे द्विगुण (जैसे पुष्करसमुद्रमें 290) संख्या आनेसे और उस प्रथम पंक्तिस्थानमें परिधिका अमुक प्रमाण होनेसे पचास हजार तथा लाख योजनका अन्तर किस तरह संगत हो सके ? इत्यादि सर्व विचारणा गीतार्थ बहुश्रुतोंके आधीन है / ( इसके लिए १२९वीं टिप्पणी पढ़नेसे विशेष ख्याल आएगा / ) सूचना-'त्रिगुणकरण 'के मतानुसार तो 50 हजार योजनका अन्तर और लाख योजनका अन्तर जो कहा है वह निश्चित है / पंक्ति व्यवस्था विषयक यद्यपि अनिश्चितता है तो भी ‘सूर्यप्रज्ञप्ति' आदि ग्रन्थोंके पाठके अनुसार मनुष्यक्षेत्रके बाहर उसी उक्त अन्तरको समझनेका है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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