________________ * छः पर्याप्तिका पुद्गल स्वरुप और व्याख्या . * 221. . तात्पर्य यह कि वैक्रियलब्धिवंत मनुष्योंके मूलदेहकी छः पर्याप्तियाँ अलग और उत्तर वैक्रिय देहकी छः पर्याप्तियाँ भिन्न होती हैं / पर्याप्ति विषयक पुद्गल कौनसे मानना? छहों पर्याप्तियोंके पुद्गल औदारिक शरीरीको औदारिक वर्गणाके, वैक्रिय शरीरीको वैक्रिय वर्गणाके और आहारकको आहार वर्गणाके होते हैं। प्रथम समय पर ग्रहण किये जाते आहार पर्याप्तिके पुद्गलोंमें तीनों ही वर्गणाओं से होते हैं / आहारक शरीर और मनः पर्याप्ति के पुद्गल शरीरमें सर्वत्र व्याप्त हैं। उच्छ्वास, भाषा पर्याप्तिके पुद्गलका स्थान अकथ्य है। इन्द्रिय पर्याप्तिका स्थान शरीरके नियत किये गए ( शरीरके ऊपर और अंदर) भागमें है। विशेषमें जीभ-जिह्वा इन्द्रियके पुद्गल बाह्याकारमें दीखती जीभके स्थानवर्ती ही होते हैं। लेकिन समग्र शरीरमें नहीं। . छहों पर्याप्तियाँ पुद्गल स्वरूप हैं वह पर्याप्ति पुद्गल स्वरूप है और वह कर्तात्माके करण-साधनरूप है। तथा उस करणसे, संसारी आत्माको आहार ग्रहणादि सामर्थ्य-शक्ति पैदा होती है और वह करण -शक्ति जिन पुद्गलों द्वारा रची जाती है वे आत्मासे ग्रहण किये गए पुद्गल जो तथाविध परिणतिवाले हैं [कारण कार्यभावसे ] उन्हें ही पर्याप्त शब्दसे बोला जाता है और इस हेतुसे ही ये सारी जीव-शक्तियाँ पुद्गल जन्य हैं क्योंकि जीवके सर्व कुछ पौद्गलिक व्यापार उस पुद्गल समूहको अवलंबित ही हैं। अगरचे जीवकी स्वयं शक्ति अपार और अवाच्य है, परंतु वह सिद्धावस्थामें है, जबकि संसारीमें वह शक्ति पुद्गल द्वारा प्राप्त होनेके कारण वह पौद्गलिक है। 'व्य निमित्तं हि संसारीणां वीर्यमुपजायते' इस प्रमाणसे / .. प्राणका कारण पर्याप्ति-पुनः इन पर्याप्तिओंकी रचना होनेसे उसमें से अगली गाथामें कहे जाते जीवके दस प्राण उत्पन्न होते हैं / अतः कारणरूप ऐसी पर्याप्तिका कार्य प्राण ही है। इस तरह पर्याप्तियाँ और उन सम्बन्धित बावतोंका वर्णन पूर्ण हुआ। .. पर्याप्तिके अनुसंधानमें कुछ कहने लायक दृश्य अदृश्य अखिल (चौदहराजलोकरूप) विश्वमें दो प्रकारके जीव हैं। एक सिद्ध और दूसरे संसारी / सिद्धात्माएँ इस संसारसे (देव, मनुष्य, नरक, तिर्यच गति रूप) सर्वथा मुक्त हुई होती हैं। अब पुनः वे कभी जन्म नहीं लेती ऐसी आत्माओंको सिद्धात्माएँ या मुवितगामी आत्माएँ कहते हैं।