________________ * 222. . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * % 3D - इन जीवोंका स्थान कहाँ है? इसके समाधानमें जणानेका यह कि ये जीव जो मोक्ष पाकर सिद्ध बन गए वे इस ब्रह्मांडमें चौदह राजलोकमें असंख्य आकाशको बेधकर ऊर्ध्वातिऊर्ध्व-अकल्पनीय इतनी दूर-सुदूर जाएँ ( शास्त्रदृष्टिसे सातराज दूर) तब अखिल विश्वके चरम भाग पर पत्थरकी बनी 45 लाख योजनकी गोलाकार विराट् शिला आकाशमें ऊँची रही हैं, उसके पर अनंतानंत, सदाके लिए विदेही-देहरहित असंख्य प्रदेशरूप प्रमाणवाली, विविध आकारकी, आत्माएँ अनंत काल तक एक ही स्थानमें रहनेवाली बनी रहती हैं। वहाँ पहुँची हुई को कभी किसी कालमें वहाँसे जन्म लेनेको इस संसारमें अवतार नहीं लेना पड़ता। शरीर है तब तक ही संसार है। तब तक सारे बंधन और दुःख है। संसार है इसलिए कर्म है। जहाँ कर्म है वहाँ चारों गतियाँ -स्थान देव, मनुष्य, नरक, तिर्यंचमें परिभ्रमण है / और तब तक बंधनों और विविध दुःखोंकी प्राप्ति है। आत्मा सत्प्रयत्नों, सत्कौद्वारा जिस भवमें-जन्ममें कर्मका सर्वथा अन्त ला दे तब वह सीधी मोक्षमें पहुँच जाती है। और सिद्धशिला पर, शिलासे थोडी दूर रहे आकाशवर्ती स्थानमें जहाँ अनंतानंत आत्माएँ अनंता कालसे ज्योतिमें ज्योति समा जाए उस प्रकार रही हैं उसमें वे समा जाती हैं। फिर भी प्रत्येक सिद्धात्माको व्यक्तिरूपसे तो सदाकाल स्वतंत्र रूपमें ही समझना। हम देख आए कि जो कर्मसे लिप्त हैं। वे ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक्लोकमें (त्रसनाडीमें ) तथा उसके बाहर घूमा करते हैं। शक्ति दोनों प्रकारमें है। एकमें चैतन्य शक्तिका पुज है। दूसरेमें पौद्गलिक शक्ति है। यह शक्ति पुद्गल द्रव्य के सहारे या निमित्तसे प्राप्त होती है। संसारी जीव मात्र वह सूक्ष्म हो ,या स्थूल, स्थावर हो या बस वह जहाँ जहाँ जन्म ले वहाँ वहाँ जीवन निर्वाहके लिए, भावि जीवन निभानेके लिए, जीवनके आवश्यक कार्य करनेके लिए पुद्गल जन्य शक्ति-बल प्राप्त करनेकी उसे अनिवार्य जरुरत पड़ती है, अर्थात् उस उस जन्मके योग्य शक्तियाँ जन्मनेके साथ ही प्राप्त करनी पड़ती हैं। अगर उन्हें प्राप्त न करे तो वह उन कार्योंको कदापि नहीं कर सकता, और कुछ मी व्यवहार चला नहीं सकता / इन शक्तियोंको प्राप्त करनेका प्रारंभ पर्याप्तिओं द्वारा होता है / जैसे कि-जीव आहार पर्याप्तिकी शक्ति प्राप्त न करे तो आहार करनेको समर्थ न बने, उस तरह शरीर या इन्द्रियोंको न बना सके, श्वासोच्छ्वास न ले सके, बोल न सके,