________________ 180 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 83-85 १४२चउयालसयं पढमिल्लयाए, पंतीए चन्द-सूराणं / तेण परं पंतीओ, चउरुत्तरियाए वुढीए // 83 // [प्र.गा०] 1४३बावत्तरि चन्दाणं, बावत्तरि सूरियाण पंतीए / पढमाए अंतरं पुण, चन्दाचन्दस्स लक्खदुगं // 84 // [प्र०गा०] जो जावइ लक्खाई, वित्थरओ सागरो य दीवो वा / . तावइयाओ य तर्हि, चन्दामूराण पंतीओ // 85 // [प्र०गा०] . [प्र. गा. सं. 17-18-19]. गाथार्थ-मनुष्यक्षेत्रके बाहरके पुष्करार्धकी प्रथम पंक्तिमें 144 चन्द्र-सूर्य संख्या होती है और उस पंक्तिसे आगेकी प्रत्येक पंक्तिमें 4 चन्द्र और 4 सूर्यकी वृद्धि करें / प्रथम पंक्तिमें 72 चन्द्र और 72 सूर्य होते हैं, उस प्रथम पंक्तिमें चन्द्रसे चन्द्रका दो लाख योजनका अन्तर होता है / जो द्वीप अथवा जो समुद्र जितने लाख योजन विस्तारवाला हो वहाँ उतनी संख्याप्रमाण चन्द्र-सूर्यकी पंक्तियाँ जानें // 83 / / 84 // 85 // विशेषार्थ-अगाऊ 78-79 इन दोनों गाथाओंसे ग्रन्थकार महर्षि ने मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्र-सूर्य व्यवस्था और उस अपेक्षासे ग्रहादि संख्या जाननेका 'करण' आदि हकीकत दर्शाई है। ____ अब इन तीन चालू गाथाओंसे दूसरे एक मतका विवरण करनेके पहले यहाँ उपयोगी ऐसा इस चन्द्रिया संग्रहणी ग्रन्थकी टीका में बताया हुआ एक दिगम्बर मत देख लें // [द्वितीय] दिगम्बरीयमतनिरूपण // 192. 'बत्तीस सयं चन्दा, बत्तीस सयं च सूरिया सययं / समसेणीए सव्वे, माणुसखित्ते परिभमंति // 1 // [मं० प्र० ] 193. गाथा 83-84-85 दिगम्बर सम्प्रदायकी हो ऐसा भी श्रुतवृद्धोका कथन है / 194. दिगम्बर सम्प्रदायके मतकी प्रक्षिप्त 'कर्मप्रकृतिप्राभृत 'की जो मूलगाथाएँ वे ये रहींचंदाओ सूरस्स य, सूरा चंदस्स अंतरं होइ / पन्नाससहस्साई, तु जोअणाई समहिआई // 1 // पणयालसयं पढमि-ल्लुयाई पंतीए चंदसूराणं / तेण परं पंतीओ, छगसत्तगवुड्ढिओ नेया // 2 // चंदाण सम्वसंखा, सत्तत्तीसाइं तेरससयाई, पुक्खरवरदीविअरद्धे, सूराण वि तत्तिआ जाण // 3 // 194