________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * गाथार्थ--विशेषार्थवत् // 211 // विशेषार्थ-ये सभी नाम निरन्वय अर्थात् विना अर्थवाले हैं, इन में पहली पृथ्वी का नाम धर्मा, 2 वंशा, 3 शेला, 4 अंजना, 5 रिष्टा, 6 मघा और सातवीं पृथ्वी का नाम है माघवती / इस प्रकार सातों पृथ्वियों के नाम आप जानें / ये नाम सान्वर्थक नहीं हैं। ये सातों पृथ्वियाँ . 'छत्रातिछत्र' अर्थात् पहला छत्र छोटा ( वहाँ फिर से ) उसके नीचे का (आयाम-विष्कम्भसे.) बड़ा उसके नीचे का और भी अधिक विस्तार युक्त एवं बड़ा इस प्रकार क्रमशः महाविस्तारवाले सात छत्र हों उसी प्रकार इन सातों पृथ्वियों का आकार बना रहता है / अर्थात् पहली पृथ्वी अल्प छत्राकार युक्त तो दूसरी उस से भी अधिक छत्र-विस्तार युक्त, यों क्रमशः अंतिम सातवीं पृथ्वी को महाछत्र विस्तार युक्त जानें / [211] असीइ बत्तीसडवीस वीस अट्ठार सोल अडसहसा / लक्खुवरि पुढविपिंडो, घणुदहिघणवायतणुवाया // 212 // गयणं च पइट्ठाणं, वीससहस्साई घणुदहिपिंडो / घणतणुवायागासा, असंखजोयणजुआ पिंडे // 213 // गाथार्थ—यहाँ गाथा में बताया हुआ 'लक्खुवरि, पद प्रथम पंक्ति में बतायी हुी सभी संख्याओं के आगे जोडना होगा और प्रथम पंक्ति का अंतिम पद . ' सहसा' को हरेक संख्या के अंत में जोड़ना होगा, जिस के कारण क्रमशः पृथ्वीपिंड का प्रमाण ( नाप) आ मिलता है / इस प्रकार प्रथम पृथ्वी का पिंडप्रमाण एक लाख के ऊपर अस्सी हज़ार योजन, दूसरी का एक लाख बत्तीस हजार, तीसरी का पिंडप्रमाण एक लाख अट्ठाईस हज़ार, चौथी का एक लाख बीस हज़ार, पाँचवीं का एक लाख अठारह हजार, छठी का एक लाख सोलह हजार तथा सातवीं का एक लाख आठ हज़ार पिंडप्रमाण आप जानें / // 212 // ____प्रत्येक पृथ्वीपिंड घनोदधि-घनवात-तनुवात और आकाश इन्हीं से चारों ओर से घिरा हुआ होता है / इन में घनोदधिपिंड ( मध्य में ) बीस हजार योजन का और धनवात, तनुवात तथा आकाश ये तीनों असंख्य योजन युक्त पिंडवाले होते हैं // 21.3 //