________________ * नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार * * 21 . विशेषार्थ-पहली रत्नप्रभा पृथ्विका पिंडबाहल्य–मोटापा एक लाख अस्सी हज़ार योजन का, दूसरी शर्कराप्रभा का एक लाख बत्तीस हजार योजन का, तीसरी वालुकाप्रभा का एक लाख अट्ठाईस हज़ार योजन का, चौथी पंकप्रभा का एक लाख बीसहज़ार योजन का, पाँचकी धूमप्रभा का एक लाख अठारह हज़ार योजन का, छठी तमःप्रभा का एक लाख सोलह हजार योजन का तथा सातवीं तमस्तमःप्रभा का एक लाख आठ हजार योजन का जाने / यह सभी पृथ्वी प्रमाण" प्रमाणांगुल से जानें / हरेक पृथ्वी घनोदधि, घनवात, तनुवात तथा आकाश इन चारों के आधार से टिकी हुी है, अतः प्रत्येक पृथ्वी का बाहल्य पूर्ण होते ही नीचे प्रथम घनोदधि, फिर घनवातादि इस प्रकार क्रमशः चक्रवाल अर्थात् चारों ओर से गोलाकार रूप में प्याले में प्यालों की तरह प्रतिष्ठित हैं / इन में घनोदधि पिंड का मोटापा बीस हजार योजन का, घनवात का असंख्य योजन का, तनुवात का इस से अधिक प्रमाणयुक्त असंख्य योजन का तथा आकाश का तनवात से भी अधिक प्रमाण असंख्य योजन का है। यहाँ घनोदधि अर्थात् ठोस घना ( बर्फ की तरह जमा हुआ) पानी / यह पानी तथाविध जगत् स्वभाव से चलता-फिरता नहीं है और न तो पृथ्वीयाँ उस में कभी डूबती हैं यह तो सदा-शाश्वत् है / घनवात अर्थात् ठोस ( घना) वायु, तनुवात अर्थात् पतला वायु और इस के बाद आकाश अर्थात् अवकाश केवल पोलापन; और यह तो सर्वत्र सर्वव्यापक रहा है ही / इस से क्या बना ? इस सम्बन्धी नीचे से ही सोच विचार करें तो प्रथम आकाश, उसके ऊपर तनुवात, उसके भी ऊपर घनवात और घनोदधि तथा सब से ऊपर नरक पृथ्वी आयी है / [ 212-13 ] . .' अवतरण : ये पृथ्वियाँ अलोक को स्पर्श करती हैं या नहीं ? इसे अर्ध गाथा में लिखते हैं न फुसंति अलोगं चउ-दिसिपि पुढवी उ वलयसंगहिआ // 2133 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 2133 / / ३६१-हमारे उत्सेघांगुलके जापसे भी चारसौगुना अथवा हज़ारगुना बड़ा नाप, जिसकी व्याख्या आगे दी जायेगी। .........