________________ * 196 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . . अवतरण-यहाँ अपवर्तनीय जीव कौन और अनपवर्तनीय आयुष्यवाले कौन इसे कहते हैं। उत्तम-चरमसरीरा, सुरनेरइया असंखनरतिरिआ / हुति निरूवकमाऊ, दुहा वि सेसा मुणेअव्वा // 335 // गाथार्थ- विशेषार्थवत् / // 335 // . विशेषार्थ-उत्तम शब्दसे मनुष्य जातिमें उत्तम प्रधान गिने जाते पुरुषोंको लेने होनेसे, हरेक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीकालमें अनादि नियमानुसार होनेवाले बारह चक्रवर्ती, नव वासुदेव, नव प्रतिवासुदेव, नव बलदेव और 'चरमशरीरी' अर्थात् जिसे शरीर धारण 'चरम' कहते अंतिम ही है, फिरसे उसे सूक्ष्म या स्थूल एक भी देह धारण करनी ही नहीं रही अर्थात् उसी भवमें जो मोक्षमें जानेवाले हैं वैसी आत्माएँ, जिसमें तीर्थकर, गणधर, केवली आदिका समावेश होता है, इसके उपरांत देव गतिके सर्व देव, नौरंक, असंख्य वर्षके आयुष्यवाले युगलिक मनुष्य-तिर्यच ये सब अनपवर्तनीय आयुष्यवाले हैं। शेष सर्व मनुष्य-तियेच जीव दोनों प्रकारके ( अथवा तीनों प्रकारके) अर्थात् निरुपक्रम अनपवर्तनीय, सोक्रेम अपवर्तनीय (और सोपक्रम अनपर्तनीय) आयुष्यवाले जाने / [335] अवतरण-अब अपवर्तनीय और अनपवर्तनीयका हेतुभूत. उपक्रम तथा अनुपक्रम ( अथवा निरुपक्रम ) प्रकार और उसकी व्याख्याको कहते हैं। . जेणाउमुक्कमिज्जइ, अप्पसमुत्थेण इयरगेणावि / सो अन्झवसाणाई, उवक्कमोऽणुवकमो इयरो // 336 // 488. कोई प्रतिवासुदेवका शलाकापुरुषमें ग्रहण नहीं करता, कोई उत्तम शब्दसे तीर्थकर, गणधर, वासुदेव, बलदेव ग्रहण करता है / 489. लोकप्रकाश सर्ग 3, श्लो० 90, चरम शरीरी तथा शलाका पुरुष इस तरह अलग अलग उल्लेख किया है / 490. तत्त्वार्थ हवृत्तिमें देवो, तीर्थकरों तथा नारकोंको ही निरुपक्रमायुषी कहते हैं / शेषको सोपक्रमी और निरुपक्रमी दोनों कहते हैं। इससे उक्त युगलिक सोपक्रमी हो जाते हैं, लेकिन यह बहुधा इष्ट नहीं है / साथ ही कोई तो देव और असं० युगलिकको अनपवर्तनीय निरुपक्रमी कहते हैं, जबकि चरमशरीरीको अलग करके उसे सोप० निरुप० अनपवर्तनीय आयुषी कहते हैं और शेषको उपरोक्तवत् कहते हैं / [जिसका प्रतिघोष कर्मप्रकृति ‘अद्धाजोगुकोसं' गाथाकी टीकामें भी पडा है / ] 491. जो अकाल मृत्यु होती है उसे कालायुष्यसे जानें, क्योंकि प्रदेशायुष्य तो संपूर्ण भोगना ही पड़ता है /