________________ ज्योतिषीदेवोंके विमानोंकी आकृति, रचना संख्या आदि ] गाथा 52-54 [ 117 अढाईद्वीपके बाहर सर्वत्र स्थिरज्योतिषी हैं। उनमें अढाईद्वीपवर्ती चरज्योतिषी मेरुसे कितनी अबाधा वर्जन करके चलता है ? ( अर्थात् अबाधा कितनी ?) इस प्रश्नके समाधानमें समझाते हैं कि-मेरुकी चारों ओर ग्यारहसौ इक्कीस (1121) योजन क्षेत्रको छोड़कर ( इतनी दूर) चरज्योतिषमण्डल मेरुपर्वतको प्रदक्षिणा करता हुआ घूमता है। अब अलोकसे अन्दर तिर्छालोकमें कितनी अबाधा पर सदाकाल स्थिर ऐसे ज्योतिष्कविमान होते हैं ? तो लोकका छोर अथवा तो अलोकका प्रारम्भ अर्थात् लोकान्तसे अथवा तो अलोकके आरम्भसे अन्दरकी कोरसे चारों बाजू पर भ्रमण करते ग्यारहसौ ग्यारह योजन दूर (1111) स्थिर ज्योतिषी वर्तित हैं [52] अवतरण-ज्योतिषीदेवोंके विमानोंकी आकृति कैसी होती है ? ये विमान किससे बने होते हैं ? और कितनी संख्यामें होते हैं ? यह बताते हैं अद्धकविट्ठागारा, फलिहमया रम्मजोइसविमाणा / वंतरनगरेहितो, संखिज्जगुणा इमे हंति // 53 // ताई विमाणाई पुण, सव्वाई हुंति फालिहमयाई / दगफालिहमया पुण, लवणे जे जोइसविमाणा / / 54 / / [प्र. गा० सं० 13 ] गाथार्थ-ज्योतिषीदेवोंके विमान अर्ध कोठेके आकारवाले, स्फटिकरत्नमय और बहुत सुन्दर होते हैं, साथ ही व्यन्तरदेवोंके नगरोंकी अपेक्षा इन ज्योतिषीदेवोंके विमान संख्याता गुने हैं, और इन ज्योतिषी देवोंके सारे विमान स्फटिकरत्नमय होते हैं। - उनमें भी जो विमान लवण समुद्र पर विद्यमान हैं वे उदकस्फटिकमय अर्थात् पानीको भी फोड़कर-छेदकर प्रकाश दे सकें ऐसे-उदकस्फटिक रत्नके हैं। // 53-54 // . * विशेषार्थ ज्योतिषीदेष अर्द्धकपिरथाकारवाले विमानों में बसते हैं / शंका ज्योतिषीदेवोंके विमान जब अर्ध कोठेके आकारवाले होते हैं, तो जब मस्तक पर (मध्याह्न) वे वर्तित हों तब उस कोठेके ऊपरका अर्ध भाग दिखाई न देनेसे नीचेका गोल भाग वर्तुलाकार दिखता है, इस बातको तो मान लें लेकिन जब उदयास्तकालमें अथवा चन्द्र सूर्यका तिर्यक् परिभ्रमण हो तब वर्तुलाकार न दिखता अर्धकपित्थाकार अवश्य उपलब्ध होना ही चाहिए, परंतु वैसा तो नहीं होता है तो उसका समाधान क्या है ? समाधान-सचमुच ऊपरकी आशंका उचित है, परंतु ज्योतिषीयोंके प्रासाद जिस पीठ पर स्थित हैं, उस पीठका आकार अर्ध कोठेके समान है। लेकिन समग्र प्रासादका आकार अर्ध कोठे जैसा नहीं है और अतः उस पीठके लगभग सभी प्रासाद इस प्रकार