________________ * नरकगतिविषयक द्वितीय भवनद्वार * . सातवीं नारक के प्रतर मध्य में एक लाख योजन का [जबू द्वीप के समान] गोलाकार में उपस्थित अप्रतिष्ठान नामक मुख्य इन्द्रक नरकावास आया है, जिसकी चारों दिशा में एक एक [अंतिम सर्वार्थसिद्ध पर ज्यों पाँच हैं उसी प्रकार यहाँ अंतिम नरक पर) नरकावास आया हुआ है। इन में पूर्वदिशावर्ती जो है उसका नाम है 'काल', अपर-पश्चिम दिशा में 'महाकाल', दक्षिण दिशावर्ती 'रौरव' और उत्तर दिशा में 'महारौरव' नाम का नरकावास है / [230] (प्रक्षेपक गाथा 57) अवतरण---अब प्रत्येक प्रतर पर उक्त इन्द्रक नरकावासा से कितनी-कितनी नरकावासाओं की पंक्तियाँ निकलती हैं ! तथा उन्हीं पंक्तियों में कितनी-कितनी संख्या में नरकावासा आये हुए हैं। यह समझाते हुए प्रथम पहले प्रतर की संख्या लिखते हैं कि तेहिंतो दिसि विदिसिं, विणिग्गया अट्ठ निरयआवलिया / पढमे पयरे दिसि, इगु-णवन्न विदिसासु अडयाला // 231 // गाथार्थ-वहाँ से ( इन्द्रक नरकवासाओं से ) दिशाओं में तथा विदिशाओं में आठ-आठ * नरकपंक्तियाँ निकली हैं। उनमें प्रथम प्रतर पर दिशागत उनचास (49) तथा विदिशागत अड़तालीस नरकावासा आये हुए हैं। विशेषार्थ-जिस प्रकार वैमानिक निकाय के प्रतरों में आवलिकागत पुष्पावकीर्णो की व्यवस्था का वर्णन किया था। उसी प्रकार यहाँ भी नरकावासाओं की व्यवस्था रही हुई है। गत गाथा में प्रत्येक प्रतर के मध्य में एक एक इन्द्रक नरकावास होता है यह बताया गया है। अब उस मध्यवर्ती इन्द्रक नरकावास से चारों मूल दिशाओं की चार तथा विदिशाओं की चार इस प्रकार कुल मिलाकर आठ नरकावासाओं की पंक्तियाँ विशेष प्रकार से हुई हैं। इन में प्रथम प्रतर में चारों दिशावर्ती प्रत्येक पंक्तियों में उनचास (49) नरकवासा होते हैं, जब कि विदिशाओं में विभाजित पंक्तियाँ अड़तालीस (48) नरकावासाओं से युक्त हैं। इस प्रकार प्रथम प्रतर में समझें / [231] अवतरण-शेष प्रतर में किस प्रकार सोचें ? उसके लिए एक नियम बताया है कि बीयाइसु पयरेसुं, इगइगहीणा उ हुंति पंतीओ। जा सत्तममहिपयरे, दिसि इक्किको विदिसि नस्थि // 232 //