________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * 3 तृतीय पृथ्वी के प्रतरों के बीच में अनुक्रम से 1 तप्त, 2 तपित, 3 तपन, 4 तापन, 5 निदाघ, 6 प्रज्वलित, 7 उज्ज्वलित, 8 संज्वलित, 9 संप्रज्वलित नरकेन्द्र हैं / इस प्रकार यहाँ तीसरी वालुकाप्रभा में ये नौ नरकेन्द्रावास आये हुए हैं / [225-26] 4. चौथी पृथ्वी के प्रतरों के बीच में अनुक्रम से 1 आर, 2 तार, 3 मार, 4 वर्च, 5 तमक, 6 खाडखड और 7 खडखड ये नरकेन्द्रावास चौथी पंकप्रभा में जाने। [227] 5. पाँचवीं पृथ्वी के प्रतरों के बीच क्रमशः 1 खाद, 2 तमक, 3 झष, 4 अन्धक, 5 महातमिस्र-इस प्रकार पाँचवीं धूमप्रभा में पाँच नरकेन्द्र जानें [228] 6. छठी पृथ्वी के प्रतरों के मध्य में अनुक्रम से 1 हिम, 2 वार्दल 3 लल्लक - इस प्रकार छठी तमःप्रभा के तीन इन्द्रकावास आये हुए हैं। 7. सातवीं पृथ्वी के प्रतर के बीच एक३६८ अप्रतिष्ठान नामक नरकेन्द्रावास जानें / [229] विशेषार्थ-नहीं हैं। [220-229] (प्रक्षेपक गाथा 47 से 56 तक) अवतरण-इन्द्रक नरकावासाओं के नाम कहने के बाद सातवीं नारकी के चार इन्द्रक की चारों दिशा में जो नरकावासा बताए हैं उनके नाम तथा दिशावासस्थान अब कहते हैं। पुव्वेण होइ कालो, अवरेण पइडिओ महाकालो / रोरो दाहिण पासे, उत्तरपासे महारोरो // 230 // [प्रक्षेपक गाथा 57] गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 230 // विशेषार्थ- इस सातवीं नारकी में आवलिकागत या पुष्पावकीर्णादिक की व्यवस्थादि न होने से ग्रन्थकार अलग गाथा के द्वारा प्रथम से ही उसकी लघु व्यवस्था बता देते हैं / दसरे ग्रन्थों में सातों पृथ्वीगत नरकेन्द्र के नामों में तथा उनके क्रम में कहीं-कहीं पर अंतर (भेद) मिलता है।