________________ वैमानिक देवदेवीका जघन्य उत्कृष्ट आयुष्य ] गाथा 8 [ 59 वर्णन किया। अब डेढ़ गाथासे चौथी वैमानिक निकायके देवोंकी उत्कृष्ट आयुष्य स्थितिका वर्णन करते हैं, दोसाहि-सत्तसाहिय, दस-चउदस-सत्तर-अयर जा सुक्को / इक्किकमहियमित्तो, जा इगती सुवरि गेविज्जे // 8 // तितीसणुत्तरेसु, सोहम्माइसु इमा ठिई जिट्ठा / / 83 / / गाथार्थ-दो सागरोपम, साधिक दो सागरोपम, सात सागरोपम, साधिक सात सागरोपम, दस सागरोपम, चौदह सागरोपम और सत्रह सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति अनुक्रमसे सौधर्म-देवलोकसे आरम्भ करके शुक्र देवलोकपयत जानें / यहाँसे एक एक देवलोकमें एक एक सागरोपमप्रमाण आयुष्य स्थितिमें वृद्धिसे ऊपरकी नवम ग्रेवेयेकमें 31 सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति हो तब तक करें, पश्चात् अनुत्तर विमानमें तैतीस सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति समझें। इस तरह सौधर्मादि देवलोकमें उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण कहा है / / 8-83 // . विशेषार्थ-चौथे वैमानिक निकायके देव दो प्रकारके हैं / 1. कल्पोपपन्न और 2. कल्पातीत / ४'कल्पोपपन्न यह पद दो शब्दोंसे संकलित है। एक 'कल्प' और दूसरा 'उपपन्न', उनमें 'कल्प' अर्थात् आचार-स्थिति-जित-मर्यादा अथवा स्पष्ट अर्थमें व्यवस्था और 'उपपन्न' अर्थात् युक्त-प्राप्त अर्थात् व्यवस्थासे युक्त वह, अर्थात् इन्द्र, सामानिक और आत्मरक्षकादि दसों प्रकारकी व्यवस्थाएँ जिसके अन्दर रही हैं वह 'कल्पोपपन्न' कहलाता है / जैसे मनुष्यलोकमें राजा और प्रजा विषयक राजकीय और प्रजा सम्बन्धी सर्व प्रकारकी आचार-व्यवस्थाएँ होती हैं, लगभग वैसे ही व्यवस्थाएँ देवलोकमें भी विद्यमान हैं और वे दूसों प्रकारके देव अपने अपने कर्तव्यानुसार समग्र देवलोकका तंत्र चलाते हैं। ये दस प्रकारके देव कौन हैं ? यह 45 वी गाथामें कहा जाएगा। ये कल्पोपपन्न देव सौधर्मादि देवलोकसे लेकर बाहरवें अच्युत देवलोक तक होते हैं। इन बारहों देवलोकोंमें परस्पर स्वामित्व, सेवकत्व, छोटे बड़ेका सब प्रकारका व्यवहार इत्यादि सर्व जातिके स्वामिसेवक आदि भाव-व्यवहार (मनुष्यलोकमें राजा और प्रजाके बीच हो वैसा ) होता है। ४२कल्पातीत-यह शब्द भी 'कल्प' और 'अतीत' ऐसे दो शब्दोंसे संकलित है, उसमें 'कल्प' अर्थात् कल्पोपपन्न शब्दकी परिभाषामें कहे गये सर्व प्रकारके मर्यादा आदि 91. 'कल्पेन-आचारेण उपपन्ना उपेता इति कल्पोपपन्नाः // ' 92. 'कल्पमाचारमतीता उल्लङ्धिता इति कल्पातीताः // ' .