________________ // तिर्यंचोंका द्वितीय अवगाहना द्वार / अवतरण-कायस्थितिपूर्वक तिर्यचोंका स्थितिद्वार कहकर अब अवगाहना द्वारको ओघ [सामान्य अथवा समुच्चय ] से कहते हैं / जोअणसहस्समहि, एगिदिअदेहमुक्कोसं // 291 // बितिचउरिदिसरीरं, बारस जोअणतिकोसचउकोसं / जोअणसहस पणिदिअ, ओहे वोच्छं विसेसं तु // 292 // गाथार्थ-एकेन्द्रियका उत्कृष्ट देहमान कुछ अधिक ऐसे हजार योजन, दोइन्द्रिय जीवोंका शरीर बारह योजन, त्रिइन्द्रियका तीन कोस, चउरिन्द्रियका चार कोस (1 यो०), तिर्यंच पंचेन्द्रियका हजार योजनसे कुछ अधिक, यह सर्वमान ओघसे अर्थात् समुच्चयमें कहा। विशेषसे अर्थात् भिन्न भिन्न भेद करके आगे कहेंगे / // 291-292 // विशेषार्थ-एकेन्द्रिय शब्दसे मुख्य किसे ग्रहण करें ? वह आनेवाली गाथामें कहनेवाले हैं। यहाँ तो समुच्चयमें एकेन्द्रियकी साधिक हजार योजनकी अवगाहना कही है / इस तरह यावत् पंचेन्द्रियकी भी यहाँ ओधसे (समुच्चयसे) ही अवगाहना कही है, परंतु आनेवाली गाथामें अवगाहनाके पृथक् पृथक् नाम ग्रहणपूर्वक क्रमशः कहेंगे। [291-292] अवतरण-अब विशेषसे अवगाहना कहते हुए प्रथम एकेन्द्रियके बारेमें कहते हैं / अंगुलअसंखभागो, सुहुमनिगोओ असंखगुण वाउ / तो अगणि तओ आऊ, तत्तो सुहुमा भवे पुढवी // 293 // तो बायरवाउगणी, आऊ पुढवी निगोअ अणुकमसो / ... पत्तेअवणसरीरं, अहि जोयणसहस्सं तु // 294 // .. गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 293-294 // विशेषार्थ-यहाँ स्थावर में पृथ्वी-अप-तेउ-वाउ-वनस्पति ये पांच भेदो हैं / इनमेंसे वनस्पतिके दो भेद हैं / 1 प्रत्येक और 2. साधारण / [ इसमें साधारणके तीन नाम है, निगोद कहिए, अनन्तकाय कहिए या -साधारण कहिए / तीनों समानार्थक हैं ] अतः पृथ्व्यादि चार और साधारण वनस्पति इन पांचोंके सूक्ष्म तथा बादर ऐसे दो भेद हैं इनमें सूक्ष्मनिगोदको साधारण वनस्पति जाने / जबकि प्रत्येक वनस्पति केवल बादर स्वरूपमें ही है, लेकिन सूक्ष्म नहीं / बृ. सं. 18