________________ * नरकगतिप्रसंग में प्रथम स्थितिद्वार . . 3 . साल की, दूसरे प्रतरपर नब्बे लाख (90,00,000) साल की, तीसरे प्रतर के नारकों की उत्कृष्टस्थिति पूर्वकोटि वर्ष की, चौथे प्रतर पर एक सागरोपम के दसवें भाग के (एक दशमांश) सागरोपम की, पाँचवें पर दो-दशमांश सागरोपम की, छठे पर तीन दशमांश सागरोपम की, सातवें पर चार दशमांश की, आठवें पर पाँच दशमांश की, नववे पर छः दशमांश की, दसवें पर सात दशमांश, ग्यारहवें पर आठ दशमांश, बारहवें पर नौ दशमांश सागरोपम तथा तेरहवें प्रतर पर दस दशमांश अथवा एक सागरोपम की पूर्ण स्थिति आ जाती है। [203] अवतरण-अब रत्नप्रभा के उन्हीं प्रतरोंकी जधन्यस्थितिका वर्णन करते हैं- इयजिट्ट जहन्ना पुण, दसवाससहस्सलक्खपयरदुगे / सेसेसु . उवरिजिट्ठा, अहो कणिहा उ पइपुढवि // 204 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 204 // विशेषार्थ-इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति बताने के बाद अब उन प्रतरों की जघन्यस्थिति को वर्णित करते हुए बताया है कि-रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम दो प्रतरों में से प्रथम प्रतर की स्थिति दस हजार साल की और द्वितीय प्रतर पर [उसे सौ गुना कर के दस लाख साल की होती है, शेष प्रतरों के लिए तो ऊपर के प्रतर की जो उत्कृष्ट स्थिति है उसे ही उसके नीचे आयी हुश्री पृथ्वी की कनिष्ठा जघन्यस्थिति जानें / इसी नियमानुसार तीसरे प्रतर पर 90 लाख, चौथे पर पूर्वकोटि वर्ष, पाँचवें पर के सागरोपम, छठे पर , सातवें पर है, आठवें पर हैं, नौवें पर कर, दसवे पर कई, ग्यारहवें पर , बारहवें पर ई, तेरहवें पर के सागरोपम की जघन्यस्थिति जानें / [204] .. अवतरण-इस प्रकार रत्नप्रभागत प्रतराश्रयी जघन्योत्कृष्ट स्थिति बतलाकर अब शेष * पृथ्वीकी स्थिति प्रमाण जानने के लिए [वैमानिकवत् ] 'करण' को बताते हैं उवरिखिइठिइविसेसो. सगपयरविहत्तइच्छसंगणिओ / _____ उवरिमखिइठिइसहिओ, इच्छिअपयरम्मि उक्कोसा // 205 // गाथार्थ-ऊपर की पृथ्वी की स्थिति का विश्लेष कर के (नीचेकी इष्ट पृथ्वी की उत्कृष्ट स्थितिमें से कम करके) जो शेष बचे उसे, इच्छित अपने प्रतर की संख्या से भागने से या विभाज्य करने से जो संख्या आती है उस को इष्ट प्रतर की संख्या से गुनने से जो संख्या आये उसे, उस के (जिस इष्ट पृथ्वी के प्रतरों की स्थिति निकालते हैं, उस के) ऊपर की पृथ्वी की जो उत्कृष्ट स्थिति है उसके साथ जोडने से इच्छित प्रतर पर उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है / // 207 //