________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * आयुष्य अपवर्तनीय अनपवर्तनीय सोपक्रम सोपक्रम निरुपक्रम [गाथा 336 ] अवतरण-वह उपक्रम जीवको सात प्रकारसे लगता है उसे कहते हैं। अवसाणनिमित्ते, आहारे वेयणा पराघाए / फासे आणापाणू , सत्तविहं झिज्झएँ आउं // 337 // गाथार्थ-सुगम है / // 337 / / विशेषार्थ-यहाँ सात प्रकारके उपक्रमोंके नाम बताते हैं / अगरचे विश्वमें अनंता उपक्रम हैं लेकिन यहाँ अवान्तर भेदोंको दूर करके, इन सबका वर्गीकरण करके उन्हें सात प्रकारमें ही समा देते हैं, अर्थात् अनंताका मूल ये सात ही हैं ऐसा समझना / ये सात कौनसे ? तो- 1. अध्यवसान, 2. निमित्त, 3. आहार, 4. वेदना, 5. पराघात, 6. स्पर्श, 7. आनप्राण / अब इन सातोंकी विशेष व्याख्या करते हैं / 1. अध्यवसान-उपक्रम, अध्यवसान कहो या अध्यवसाय कहो, दोनों एक ही अर्थके वाचक हैं। अधि-आत्मनि अवतिष्टति इति–जो औत्मामें उत्पन्न हो वह / हरेक ( संज्ञी) आत्माके अंदर 'मन' हृदय या अंतःकरणसे पहचाना जाता एक एक पुद्गल द्रव्य रहा है / जो द्रव्य अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुओंका बना होता है। और वह समग्र देहव्यापी है, परंतु दिगम्बरोंकी मान्यतानुसार मात्र हृदयव्यापी नहीं है तथा नैयायिकोंकी तरह अणुप्रमाण भी नहीं है / यह 'मनोद्रव्य' विश्वमें एक ऐसी अदृश्य, अद्भुत, अगम्य और विचित्र वस्तु है कि अणु, हाइड्रोजन या कोबाल्ट बॉम्ब को ढूंढनेवाले या कृत्रिम ग्रहों को बनानेवाले अच्छे-अच्छे वैज्ञानिक भी इसे देखजान सकें ऐसा नहीं है तो फिर उसका पृथक्करण करने की तो बात ही कहाँ रही ? उसके अप्रतिहत और अकल्प्य वेगको मापसे समझनेको एक सर्वज्ञके सिवाय कौन शक्तिमान है ! कोई भी नहीं। 492. यह गाथा आवश्यक नियुक्तिकी है / 493. सिज्जए, भिज्जए। इति पाठां. / 494. जैन और नैयायिक अध्यवसायको आत्माका धर्म मानते हैं लेकिन सांख्य बुद्धिका धर्म मानते हैं /