________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] __ सुभूम चक्रवर्ती [ 11 स्वीकार किया है। इष्टदेवको नमस्कार यह भी एक भावमंगलका प्रकार है। और द्रव्यमंगल तों प्रसिद्ध है। उसमें इष्टदेवको भावमंगलरूप किया नमस्कार अवश्य फलसिद्धिदायक है, जिसको हम पहले जान चुके हैं। परन्तु द्रव्यमंगलसे अर्थात् कि किसी भी गुड़-कंसार, दही आदि वस्तुसे किये लौकिक मंगलोंसे, इष्टसिद्धि के लिए की जाती। कार्यसिद्धिमें संशय है। प्रायः प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है कि इष्टसिद्धिके लिए प्रस्थान करनेवाली व्यक्ति दही, आदि अच्छे अच्छे मांगलिक रूपमें माने गये-कहे गये द्रव्योंकापदार्थों का भोजन करके प्रस्थान करने पर भी, अच्छे शकुन लेने पर भी अतिशय आहारादिके कारण मार्गमें ही अजीर्णादि व्याधि हो जानेसे इष्ट कार्यसिद्धि होती नहीं देखी जाती। 8. सुभूम चक्रवर्ती अरे ! एक सामान्य उदाहरण लीजिये। सोचे, वादी और प्रतिवादी दोनों विजय पानेकी आशासे अच्छे अच्छे द्रव्यमंगल करके न्यायालयमें जाने पर भी विजय तो वादी और प्रतिवादी दोमेंसे एककी ही होती है / यह बताता है कि द्रव्यमंगल कार्यसिद्धि करे या न भी करे। चक्रवर्ती छह खण्डोंकी साधना अवश्य करे और उससे सार्वभौमत्व प्राप्त भी हो, छह खण्डोंकी यह साधना उसी चक्रवर्तीकी सार्वभौमत्व सम्बन्धकी उत्कृष्ट मर्यादा ! फिर भी इस मर्यादाका उल्लंघन करके अठारहवें और उन्नीसवें तीर्थकरके बीचके कालमें हुए सुभूम नामके चक्रवर्ती लोभके कारण सातवाँ खण्ड जीतनेको तैयार हुए। सचमुच लोभ सर्व दुःखोंका मूल है / लोभके कारण परवश बने हुए सुभूमने 'जान बुझकर ओखलीमें सिर देने जैसा' धातकीखण्डके भरतखण्डको साधनेका कार्य करनेका प्रारम्भ किया और सोचा कि किसीने जब इस तरह हिंमत नहीं की और मैं करनेको तैयार हुआ हूँ तो सबसे अच्छे मंगल करने के लिए प्रस्थान करूँ और कायसिद्धि पाऊँ / ऐसी मनोगत विचारणा की स्फूरणासे अच्छेसे अच्छे ( सबसे अच्छे ) मांगलिक पदार्थोंका उसने आहार किया। उसके बाद भाट-चारण जयपताका सूचन करती बुलन्द आवाजसे बिरदावली-प्रशस्ति गाने लगे। अनेक मनोहर कार्यसिद्धिके बीजसूचक सौभाग्यवती सन्नारियोंने तिलकादि सब मंगलकार्य भी किये / तदनन्तर छह खण्डोंको साधकर धातकी खण्डके सप्तम भरतखण्डको साधने के लिए उत्सुक हुआ और देवाधिष्ठित चर्मरत्नसे लवणसमुद्र तैरनेके लिए रत्नके तल पर सारे सैन्यको बिठाकर, चर्मरत्नरूपी जहाज जब चलने लगा और थोडी दूर गये, तब यकायक उस रत्नको ढोनेवाले देवोंके मनमें ऐसी बुद्धि उत्पन्न हुई कि 'इस रत्नको दूसरे बहुतसे देव उठाते हैं तब मैं क्षणभर विराम-विश्राम ले लूं' ऐसी बुद्धि समकालमें उस रत्नको उठानेवाले सभी देवोंकी होनेसे सर्व विराम लेने गये और उसी समय चक्रवर्तीके अन्य रत्नादिकके कारण उसकी सेवामें रहनेवाले दूसरे सोलह हजारको भी वैसी ही भावना प्रकट हुई, अतः वे भी चर्मरत्नको छोड़कर चले गये। जिससे निराधार बना हुआ चर्मरत्न समुद्र में डूब गया और उसके