________________ * शानद्वार-श्रुतज्ञान . * 317 . फिर भी प्रस्तुत वाच्यार्थका वाचक शब्द ही होता है। अतः शब्द स्वयं वाच्यार्थ रूप जो कार्य होता है उसके कारण रूप बनता है। अगर शब्द ही न हो तो ज्ञान किससे प्राप्त करें ? इस कारणसे शब्द कारण रूप होने पर भी उसकी महत्ताके लिए कारणको कार्यरूप ( औपचारिक ) मानकर हमारे यहाँ शब्दको भी 'श्रुतज्ञान' की महोर लगायी गई है। बाकी सीधे रूपमें तो शब्द 'द्रव्यश्रुत' है। और उस परसे उत्पन्न होता अर्थबोधरूप आत्मफल अथवा सच्ची समझ यह 'भावश्रुत' है / संक्षिप्तमें कहे तो वाच्यवाचक (शब्द और अर्थके) संबंधसे जो बोध उत्पन्न होता है इसे श्रुतज्ञान कहते हैं / एक शब्द सुनकर मतिज्ञान जो विस्तृत हुआ तथा उससे उसके अर्थका ज्ञान भी हुआ, और . फिर यथार्थ पदार्थ बोध जो हुआ उसे भी श्रुतंज्ञान कहा जाता है / अब इसे उलटाकर देखें तो एक वाच्य पदार्थको देखते मतिज्ञान होते ही इसके साथ साथ ही उसके वाचक शब्दका जो ज्ञान होता है यह भी श्रुतज्ञान है। इस प्रकार वर्ण शब्द श्रुतज्ञानमें मुख्य रूपमें होता है। अभी श्रुतज्ञानकी छट्ठी प्रधान परिभाषा कहने के लिए शंका-समाधान करते हैं। शंका-उपर्युक्त परिभाषाओंसे तो ऐसा आभास ( भ्रम ) पैदा होता है कि मानो प्राणीमात्रको शब्दबोध एक समान ही होता होगा ! तो वह बात ठीक है क्या ? समाधान-नहीं, एक समान बोध कदापि नहीं होता। क्यों नहीं होता है तो इसके लिए जो मौलिक और मुख्य कारण भाग स्वरूप है उसे बताते हैं / इसी कारणमें ही छट्ठी परिभाषा समा जायेगी। - छट्ठी परिभाषा-एक कर्म जिसका नाम श्रुतज्ञानावरणीय है / इस कर्मके क्षयोपशमसे ( अमुक कर्मका नाश और अमुकका उपशम ) उत्पन्न होते शब्द-लिपि आदि द्रव्य श्रुतका अनुसरण करनेवाला पदार्थबोध-आत्मविचार-नतीजा ही श्रुतज्ञान कहा जाता है। इस परिभाषासे जन्मान्तरके शुभाशुभ अनेक कर्मों के द्वारा इस जन्ममें प्राप्य कर्म 619. यहाँ शब्दश्रवण यह है मतिज्ञान और इस परसे मिलता पदार्थ बोध श्रुतज्ञान है / उसी प्रकार धुआँ देखकर जो ज्ञान मिलता है वह है मतिज्ञान, और धुआँ परसे अग्मिका जो अनुमान होता है वह है श्रुतज्ञान / ___ मतिज्ञान द्वारा देखे, जाने या सोचे हुए पदार्थ-भावोंके भेद-प्रभेदोंका ज्ञान ही श्रुतज्ञान है। इस प्रकारसे भी हम सोच सकते हैं /