________________ * मनुष्याधिकारमें आठवाँ आगतिद्वार * 6. वणमाला-इस नाम की माला वासुदेव की छाती पर निरंतर लटकती होती ही है / वह माला कभी कुम्हलाती नहीं है / वह सर्व ऋतु के पुष्पोंसे सुंदर तथा अत्यंत सुगंधी होती है, तथा देवसमर्पित होती है / ____7 शंख-पांचजन्य, इस शंख को वासुदेव के सिवाय (तीर्थकर वर्ण्य ) दूसरा कोई भी बजा नहीं सकता / उसकी आवाज होते ही शत्रु सैन्य भयभीत होकर भाग जाता है / इस शंख की आवाज 12 योजन तक सुनी जाती है / इस तरह सदा देवाधिष्ठित सात रत्न वासुदेव के होते हैं और बलदेवें' के तीन रत्न होते हैं, जिसकी हकीकत आगे अलग कही जाएगी / [270] . // मनुष्याधिकार में आठवाँ आगतिद्वार // अवतरण-सातवें गतिद्वार को पूर्ण करके, अब आठवाँ आगतिद्वार बताया जाता है / संखनरी चउसु गइसु, जंति पंचसु वि पढमसंघयणे / इग दु ति जा अट्ठसयं, इग समए जति ते सिद्धिं // 271 // गाथार्थ-संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले मनुष्य मर कर चारों गति में जाते हैं, परंतु उन में जो प्रथम संघयणवाले हैं वे पांचों गति में जाते हैं / वे एक ही समय पर एक, दो, तीन यावत् एकसौ आठ तक सिद्धि पद को पाते हैं // 271 / / विशेषार्थ- संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले पुरुष-स्त्री नपुंसकवेदी मनुष्य, देव-नरकतिर्यंच और ( पुनः ) मनुष्य इन चारों गतियों में उस उस गति योग्य परिणाम को प्राप्त होने पर उत्पन्न हो सकते हैं / [ असंख्य वर्षायुष्यवाले युगलिक का निषेध किया ] इन संख्यवर्षायुषी में जो प्रथम वज्रऋषभनाराच संघयणवाले हैं, ( अन्य संघयण का निषेध हुआ) वे ही तद्भव में शुभ अध्यवसाय प्राप्त होते ही चार गति के उपरांत पांचवीं गति अर्थात् मोक्षगति में भी जाते हैं / --- अर्थात् जब जीव संक्लिष्ट अध्यवसायवाला, हिंसा में आसक्त, महारंभी, महापरिग्रही, रौद्र परिणामी आदि पापाचरणवाला हो तब नरकायुष्य योग्य कर्मोपार्जन कर के नरकमें जाता है / ... 400. यहाँ तीर्थकर-चक्री-वासुदेव-प्रतिवासुदेव-बलदेव [ नारद-रुद्र ] आदि उत्तम पुरुषों का संक्षिप्त स्वरूप तथा उनके जीवन की संक्षिप्त हकीकत देने का ग्रन्थविस्तार हो जानेके कारण मुलतवी रखा है / 401. नर शब्द जातिवाचक होनेसे स्त्री-पुरुष-नपुंसक तीनों लेने के हैं।