________________ .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * -जब जीव माया-कपट-छल में अधिक तत्पर हो, छोटे बडे व्यसनों में रत रहता हो, अधिक खाया करता हो तो प्रायः तिर्यच गति योग्य कर्मोपादान करके तिर्यंचगति में जाता है। -----साथ ही मार्दव-आर्जवादि सरल गुण युक्त हो, शल्यवाला हो वह मनुष्यगति में आता है। -तथा हिंसा, मृषा, स्तेय, मैथुन, परिग्रहादि पापों के त्यागी, गुणग्राही, बालतपादिक करनेवाले, दानरुचि, अल्पकषायी, आर्जवादि गुणोंवाले जीव परिणाम की विशेषता से देवगति योग्य कर्मोपार्जन करके देवगति में जाते हैं / ___-और जब प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्तिरूपंप्रकटनरूप-सम्यक्त्व अर्थात् सत्श्रद्धारूप परिणाम, सम्यकज्ञान परिणाम और प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पांचों महापाप की निवृत्ति-त्यागरूप चारित्र परिणाम उत्पन्न हो-अर्थात् सम्यग्-श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के सहयोगसे जीवको विशिष्ट प्रकार का, सर्वोत्तम निर्मल कोटिका परिणाम उत्पन्न हो तब, विशुद्ध कोटिकी उग्र तपसंयमादि की आराधना द्वारा जीवन में सर्वोत्तम चारित्र, सर्वोत्तम ज्ञान-दर्शन और सर्वोत्तम शक्ति प्राप्ति के आडे आनेवाले ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चारों घातीकर्मों का क्षय करके श्रेष्ठ कोटिका वीतरागभाव-चारित्र, सर्वोत्तम शक्ति तथा संपूर्ण लोकालोक को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त करता है / यह ज्ञान प्राप्त होनेके बाद जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त (छोटे बडे अनेक अन्तर्मुहूर्तो समझना ) उत्कृष्टसे कुछ न्यून पूर्वकोटि वर्ष पर्यंत केवलीपन में ही रहकर, शेष रहे भवोपग्राही ( वेदनीय, आयुप्य, नाम, गोत्र ) चार कर्मों को यथाकाल खपाकर, सकल कर्मसे मुक्त होकर, आत्मिक सुख में निमग्न वे आत्माएँ ऋजुगति से एक ही समय में मुक्ति सुख को प्राप्त करती हैं / अर्थात् चौदह राजलोक के अन्त में आई मुक्तात्माओं के रहने के लिए स्थानवर्ती जो सिद्धशिला है वहाँ पहुँच जाती हैं / वहाँ सादिअनंत स्थिति प्रमाण के अव्याबाध, अनंत आत्मिक सुखका उपभोग करता हैं / संसार की कारणभूत कर्मसत्ता नष्ट होनेसे, उसका कार्यभूत संसारभ्रमण दूर होनेसे, फिर से इस विश्व में उन्हें आने या अवतार लेने जैसा कुछ भी होता ही नहीं है / ये जीव एक ही समय में एक, दो, तीन इस प्रकार यावत् किसी काल में एक साथ 108 तक मोक्ष में जा सकते हैं / [ 271 ]