________________ * भिन्न भिन्न कारणाश्रयी से होती हुई गति * अतिक्रूर अध्यवसाय ने दयालु होने के कारण नरक योग्य कर्म बंद होता नहीं है, अतः वे नरक में उत्पन्न होते नहीं है / तिर्यंचों में से भी सिर्फ पंचेन्द्रिय लिए गये हैं / अतः यहाँ एकेन्द्रियादि चार का निषेध हुआ है / पंचेन्द्रियों में भी देव-नारकी नहीं, क्योंकि देव मरकर नरक में नहीं जाते हैं तथा नारकी भी मरकर पुनः नरक में नहीं जाते हैं, इसलिए / लेकिन तथाविध रौद्राधिकअतिकर अध्यवसायादिक से नरक आयुष्य के बंध हेतु उत्पन्न होने से, इन्हीं से ही उनका आयुष्यबंध होने के कारण वे वहाँ जाते हैं / वे बिना कारण, या बिना बंधन उत्पन्न होते नहीं है / अतः नरक गमन में मनोयोग की प्राधान्यता रहती है / इस के उपरांत महारंभी, महापरिग्रही जीव भी नरकमें जाते हैं / इस में भी अध्यवसाय की जितनी मलिनता होती है, उतना निम्न कोटि के नरकों में जाना पडता है / यही बात अब बादकी क्षेपक गाथाओं में बतायी जायेगी। [ 251 ] ___ अवतरण-कौन-से जीव नरकायुष्यको बाँधते है-उसी अध्यवसायाश्रयी गति अब बताते हैं / मिच्छद्दिट्ठि महारंभ-परिग्गहो तिव्वकोह निस्सीलो / नरयाउअं निबंधइ, पावरुई [मई ] रुद्दपरिणामो // 252 // [प्रक्षेपक गाथा-६३] गाथार्थ-विशेषार्थ के अनुसार- // 252 // विशेषार्थ-मिथ्यात्वी-'मिथ्यादृष्टि' अर्थात् जिनेश्वरकथित तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा करनेवाला, शुद्धमार्ग की अरुचिवाला और उसी कारण महापाप की प्रवृत्ति में आसक्त रहनेवाला और अनेक अधर्मबहुल प्रवृत्तिओं का वह उपासक होता हैगोशालादिक की तरह / महारंभी–महापाप के आरंभ-समारोह का करनेवाला, अनेक जीवों की हानि जिस में रही हो ऐसे दुष्ट-भयंकर धंधे-रोजगार आदि कार्यों का आरंभ करनेवालाकोलसौकरीकादि चंडालवत् / ३७४–गोशालो-प्रभु महावीर को महान पीडा देनेवाला, स्वमत स्थापित करके स्वयं खोटा सर्वज्ञ बनकर भगवान को इन्द्रजालिक कहनेवाला, -जिसकी कथा प्रसिद्ध है / / ३७५-यह महाचंडाल श्री महावीर प्रभु के समय में हुआ है, जो हमेशा 500 भैंसे को मारता था / बड़ी बड़ी मिलें, कारखाने, जंगल के व्यापारी, मटन के व्यापारी-ये सब महारंभी की कोटि में गिने जाते हैं। __ . सं. 8