________________ * 192. .. श्री गृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * तत्पश्चात् द्विवक्रामें निश्चयनयसे ऊपर अनुसार दो समय अनाहारी, त्रिवक्रामें तीन समय अनाहारक और चतुर्वक्रामें चार समय अनाहारी होते हैं, क्योंकि सर्व वक्रागतिमें अंतिम एक समय आहार सहित होता है। - यहाँ निश्चयनयाश्रयी अंतिम समय आहारक तथा शेष. अनाहारक हैं अता, व्यवहारनयमें उत्कृष्टसे तीन समय और निश्चयनयमें उत्कृष्टसे चार समय अनाहारकरुप. समझना / // 331 // . अवतरण-अब चौथा अपवर्तन किसे कहा जाए और आयुष्यमें वह क्या कार्य करता है, यह कहते हैं। बहुंकालवेअणिज्ज, कम्म अप्पेण जमिह कालेण / वेइज्जइ जुगवं चिअ, उइन्नसव्वप्पएसग्गं // 332 // अपवत्तणिज्जमेयं आउं, अहवा असेसकम्म पि / बंधसमए वि बद्धं, सिढिलं चिअ तं जहा जोग्गं // 333 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 332-333 // विशेषार्थ-इस विश्वमें तिर्यच या मनुष्य बहुत लंबे काल तक वेदी-भोगा जा सके ऐसे दीर्घ स्थितिवाले आयुष्यकर्मको या उसके दलिकों (प्रदेश-परमाणुओं) को भी अपवर्तना नामके एक करण (प्रयत्न) से, भविष्यमें क्रमशः उदयमें आनेवाले सत्तागत रहे आयुष्य पुद्गलोंको एक साथ ही उदयमें लाकर अल्पकालके अंदर ही वेद-भोग डालें, अर्थात् अनुभव करके क्षीण कर देते हैं / इसलिए सौ साल तक जी सकनेवाला अंतमुहूर्तमें भी प्राणत्याग कर सकता है / इस प्रकारके मूलस्थितिमेंसे परावर्तन पानेवाले आयुष्यको अपवर्तनीय आयुष्य कहा जाता है। गत भवमें वंधकालमें मन्द अध्यवसाय आनेसे प्रस्तुत आयुष्य शिथिल बंधसे बांधा था / किसी समय प्रतिकूल उपक्रमादि निमित्त मिलते ही दीर्घकालीन स्थितिमें धक्का लगनेसे अनुदित आयुष्य प्रदेश 'आत्मप्रयत्नसे सतह पर आ जाएँ और उसे जीव भारी वेगसे शीघ्र भोग डाले और भोगै" पूरा होने पर शरीरसे आत्मा अलग होकर गत्यन्तरमें जन्म लेने चली जाती है / 484. यहाँ अर्थान्वयके अनुसार शब्दक्रम रक्खा है / 485. यहाँ बंधकालकी स्थितिसे भोगकालकी स्थिति बहुत कम होती है / सामान्य कालसे युद्धकालमें भयंकर रोगका तांडव. चलता हो तब, आश्चर्यजनक अकालमृत्युकी जो घटनाएँ बनती हैं, वे प्रायः अपवर्तनीय प्रकारके आयुष्यके कारण हैं / :