________________ ... * भायुष्यमें मपवर्तनका कार्य * * अमर कोई शंका करे कि दीर्घ स्थितिको संक्षिप्त करनेका विचित्र परावर्तन इस एक ही कर्ममें बनता है या दूसरेमें भी होता है ! तो यह अपवर्तनाकरण हरेक कर्ममें होता है। और समस्त प्राणियोंमें ऐसे परावर्तन बनते ही रहते हैं, और दीर्घकाल भोग्य कर्मोंका हास करके स्वल्पकाल भोग्य बना देते हैं। शंका-विद्यार्थी, आयुष्य कर्मादिककी अपवर्तनीय घटना जानकर कहता है कि आपका यह कथन यथार्थ नहीं है क्योंकि इससे तो 'कृतनाश' और 'अकृतागम' नामका दोष खड़ा होता हैं, जबकि शास्त्रवचन तो निर्दोष होना चाहिए। - तब प्रथम तो यह दोष क्या है ? यह समझ लें, सैद्धान्तिक और दार्शनिक ग्रन्थों में ऐसे दोषका निरूपण आता है। उसका अर्थ यह हैं कि, जो कार्य हो वह स्वयोग्य फल दिये बिना ही अगर नष्ट हो जाए तो कृतनाश (कियेका नाश) दोष कहलाए / और जो कार्य किया ही नहीं है, फिर भी उस कार्यका जो फल हो उसे भोगने का बने, यह 'अकृतागम' (नहीं कियेका आगमन) दोष कहलाता है। अर्थात् कारण होनेसे कार्यनाश. और कारणके अभावमें कार्योत्पत्ति / उक्त दोषको घटाते हुए वे कहते हैं कि, गतजन्ममें आयुण्यकर्म जितनी स्थितिका बांधा हो, उतनी स्थितिका भोगा जाना ही चाहिए लेकिन अपवर्तनमें तो हास होता होनेसे क्रमशः पूर्णकाल जितना भोगा नहीं जाता, अतः ‘कृतनाश' बनता है। और अपवर्तनमें दीर्घकालीन कर्म पुद्गलोंको स्वल्पकालमें ही भोग लेनेकी क्रिया होती है लेकिन उतने अल्पकालका तो वह कर्म नहीं बांधा, तो फिर उस तरह कैसे क्रिया संभवित हो सके ! इससे * अकृतागम' होता है। समाधान-इसका समाधान ऊपर आ गया है, फिर भी ग्रन्थकारका ही जवाब समझ लें / वे 328 वीं गाथाके उत्तरार्धमें 'बंधसमएऽवि बद्धं सिढिलं' यह जवाब देकर उक्त दोषका इन्कार करते हैं। इसका अर्थ यह है कि गत जन्ममें आयुष्य बांधा तब . उसके परिणाम ही मन्द कोटिके थे। अतः ग्रहण किए गए आयुष्य पुद्गल मजबूत रूपसे जत्थावंद ग्रहण नहीं हुए जिससे वे निर्बल रहे और इस लिए प्रवल प्रयत्नसे मेव बन गये। इस लिए आयुष्यकर्मबंध शिथिल ही बांधा गया था, ऐसे शिथिल बंध पर देश-काल अर्थात् किसी क्षेत्र या किसी कालकी अपेक्षा पाकर, स्नेह भयादि जन्य अध्यवसायादि उपक्रम लगे इसलिए आयुष्यकी अवश्य अपवर्तना हो सकती है। इससे हुआ क्या कृ. सं. 25