________________ 310 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 139-141 अवतरण-पहले देवोंकी सामान्यतः स्थिति बतायी / अब सागरोपमकी वृद्धिसे विश्लेषकरणमें उपयोगी ऐसी प्रत्येक प्रतरमें देवोंकी स्थिति बताने इस गाथाकी रचना ग्रन्थकारने की है / अतः पुनरुक्ति दोष असम्भवित है। कप्पदुग-दु-दु-दु-चउगे, नवगे पणगे य जिट्ठठिइ अयरा / दो सत्त चउदऽठारस, बावीसिगतीसतित्तीसा // 139 // गाथार्थ-वैमानिकनिकायके प्रथम दो कल्पमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति दो सागरोपमकी है। उसके बाद सनत्कुमार-माहेन्द्र युगलकी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपमकी, ब्रह्म और लांतक कल्पमें चौदह सागरोपमकी, शुक्र सहस्रार युगलकी अठारह सागरोपमकी, आनत-प्राणत और आरण अच्युत इन चारों कल्पमें बाईस सागरोपमकी, नौ ग्रेवेयकमें इकतीस सागरोपमकी और . २४'पाँच अनुत्तरमें तीस सागरोपमकी आयुष्य स्थिति है / // 139 // विशेषार्थ-गाथार्थवत् सुगम हैं / [ 139] अवतरण-१३८वीं गाथामें प्रत्येक कल्पगत देवोंका सामान्यतः शरीरप्रमाण बताया गया है / ज्यों सनत्कुमार युगलमें 6 हाथका शरीरप्रमाण उस प्रथम प्रतरवर्ती सात सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका मुख्यतः कहा जा सकता है, परन्तु उसी कल्पके अन्य प्रतरवर्ती देव कि जिनकी 3-4-5-6 सागरोपमकी स्थिति है उनका बताया नहीं है; त्यों समग्र कल्पमें कल्पाश्रयी उत्कृष्ट स्थिति बतायी है परन्तु प्रतिसागरोपमकी वृद्धिसे प्रत्येक प्रतरवर्ती देवोंका शरीरप्रमाण कितना न्यून होता है वह बताया नहीं है। इसलिए अब करणके माध्यमसे यथोक्त सागरोपम आयुष्यकी वृद्धिके क्रमसे आगे आगे हीन-हीनतर होते शरीर अवगाहनाके यथोक्त प्रमाणको प्रतिपादन करनेवाली दो गाथाएँ कही जाती हैं। . विवरे ताणिक्कूणे, इक्कारसगाउ पाडिए सेसा / हत्थिक्कारसभागा, अयरे अयरे समहियम्मि / / 140 // चय पुवसरीराओ, कमेण एगुत्तराइ वुड्ढीए / . एवं ठिइविसेसा, सणंकुमाराईतणुमाणं / / 141 / / - गाथार्थ- उत्तरकल्पगत अधिक स्थितिमेंसे पूर्वकल्पगतकी जो कम स्थिति है उसको 291. अन्य स्थान पर विजयादि चार अनुत्तरमें उत्कृष्ट स्थिति 32 सागरोपमकी तथा सर्वार्थसिद्धमें 33 सागरोपमकी स्थिति कही है जिसकी गवाही तत्त्वार्थ 4-2, प्रज्ञापना, समवायांग आदि ग्रन्थ देते हैं / लेकिन उस 32 सागरोपमकी स्थिति सामान्यतः एक एक सागरोपमकी वृद्धिके 'करण' क्रममें आती है इसी लिए वैसी विवक्षा की होगी; वरना 33 सागरोपम योग्य है।